औफिस आई तो उस के बौस को बुलावा था. तियाशा कैबिन में गई. बौस अनिमेष, उम्र 45 के आसपास, चेहरे पर घनी काली दाढ़ी, बड़ीबड़ी आंखें, रंग गोरा, हाइट ऊंची... तियाशा ने उन्हें इतने ध्यान से देखा नहीं था कभी.
बौस ने अपने जन्मदिन पर उसे घर बुलाया था, छोटी सी पार्टी थी. औफिस से निकल कर उस ने एक बुके खरीदा और घर आ गई.
किंशुक के जाने के बाद अब तक जैसेतैसे जिंदगी काट रही थी वह. ऐसे भी समाज में कहीं किसी शुभ कार्य में सालभर जाना नहीं होता है. कहते हैं मृत्यु जैसे शाश्वत सत्य के कारण लोगों के मंगल कार्य में बांधा पड़ती है. और बाद के दिनों में? विधवा है. अश्पृश्य वैधव्य की शिकार. अमंगल की छाया है उस के माथे पर. पारंपरिक भारतीय समाज डरता है ऐसी स्त्री से कि क्या पता संगति से उन के घर भी अनहोनी हो जाए. उस पर दुखड़ा रो कर भीड़ जुटाने वाली स्त्री न हो और लोगों को सलाह देने, दया दिखाने का मौका न मिले तो वह तो और भी बहिष्कृत हो जाती है. पड़ोस में कई शुभ समारोह तो हुए, लेकिन तियाशा बुलाई न गई. अकेलापन उस का न चाहते हुए भी साथी हो गया है.
शादी से पहले तियाशा स्वाबलंबी थी. एक प्राइवेट कालेज में लैक्चरर थी. तब की बात कुछ अलग थी, मगर शादी के इन 7 सालों में जैसे वह किंशुक नाम के खूंटे से टंग कर रह गई थी. बाहर जाने के नाम पर किंशुक ने ही तो तनाव भरा था उस में. हमेशा कहता कि अब तुम कहां जाओगी, मैं ही जाता हूं. आखिरी दिनों के दर्दभरे एहसासों के बीच भी कहता कि दवा खत्म हो गई है, थोड़ी देर में मैं ही जाता हूं. काश, किंशुक समझ पाता कि इस तरह उसे आगे अकेले कितनी परेशानी होगी. दुविधा, भय और लोगों से मेलजोल में अपराध भावना हावी हो जाएगी उस की चेतना पर. अब देखो कितनी दूभर हो गई है रोजमर्रा की जिंदगी उस की. न तो खुल कर किसी से दिल का हाल कह पाती है और न ही अनापशनाप सवालों के तीखे जवाब दे पाती है.