‘‘चाचाजी, शाम को जन्माष्टमी की झांकी और उत्सव सजेगा. उस के लिए 100 रुपए चंदा दे दीजिए,’’ टोली के अगुवा गप्पू ने बड़ी धृष्टता से कहा. ‘‘100 रुपए. मैं तो 10 रुपए ही दे सकती हूं.’’ ‘‘नहीं, नहीं चाचीजी, जब सब लोग 100 रुपए दे रहे हैं तो आप 50 तो दे ही दीजिए. अरे, कन्हैयालला को दान नहीं करेंगी तो परलोक कैसे सुधरेगा?’’ गप्पू की तेज नजरों ने गुप्ताइन चाची के छोटे से बटुए में 50 का नोट ताड़ कर उन की कमजोर नस पर चोट की थी.
लक्ष्मीजी ने 50 का नोट दिया और जाते बच्चों से बोलीं, ‘‘शाम को प्रसाद भेज देना.’’
गुप्ताजी अपने बरामदे में बैठ सबकुछ देख रहे थे. पत्नी के आते ही बिगडे़, ‘‘बगैर बात के उन छोरों को 50 रुपए पकड़ा आईं.’’
‘‘अब छोड़ो भी. पासपड़ोस का मामला है. मिलजुल कर चलना ही पड़ता है,’’ गुप्ताइन बोलीं.
‘‘हांहां, क्यों नहीं? जन्माष्टमी की झांकी के नाम पर चंदा उगाह कर ये उस से शराब पीएंगे, मुरगा खाएंगे और शाम को झांकी सजाने के नाम पर महल्ले की बीच सड़क को जाम कर देंगे. इस सब में इन का साथ देना भी तो पुण्य का काम है.’’
गुप्ताजी के पड़ोसी मास्टरजी अपने गेट के बाहर खड़े हो कर यह सबकुछ देख रहे थे. दरअसल, वह गुप्ताजी को साथ ले कर लल्ला के खिलाफ शिकायत करने थाने जाना चाह रहे थे पर पतिपत्नी दोनों की तकरार सुन कर वह अकेले ही थाने की ओर चल पडे़.
मास्टरजी को देखते ही थाना प्रभारी रामसिंह उठ खडे़ हुए, ‘‘नमस्ते सर, आप
ने कैसे तकलीफ की?’’ रामसिंह कभी मास्टरजी का छात्र रह चुका था इसलिए भी वह उन का बहुत आदर करता था.
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