उस रात अभिषेक बेकाबू हो गया. चित्रा की न... न... करती गुहार को अनसुना कर अपनी पिपासा मिटाने को आतुर हो गया. भय से नीले पड़े चित्रा के अधरों को उस ने अपने दहकते होंठों से सिल दिया. अपनी बलिष्ठ भुजाओं में कांपती देह दबोच ली. एक शिकारी पक्षी निरीह जीव को पंजों में दबाए था. अभिषेक के निढाल हो कर लुढ़कने के बाद चित्रा सिसकियां ले कर लगातार आंसू बहाती रही, लेकिन उस के आंसू पोंछने वाला कोई नहीं था.
सिलसिला चल निकला. चित्रा अपने को अभिषेक द्वारा रौंदे जाने से पहले मन पक्का कर लेती, किसी तरह वे 10-15 मिनट बीतते और वह चैन की सांस लेती. धीरेधीरे वह इस की आदी हो गई. अब अभिषेक के छूने पर वह चुपचाप पड़ी रहती. न कोई पीड़ा, न दुख, न उत्साह, न रोमांच. प्रेम में उत्तेजित होना क्या होता है, यह तो वह कभी जान ही नहीं पाई.
चित्रा का शुष्क व ठंडा व्यवहार अभिषेक को रास नहीं आ रहा था, लेकिन पति के खोल से बाहर निकल उस ने एक मित्र या प्रेमी के समान कभी यह जानने का प्रयास नहीं किया कि चित्रा के ऐसे व्यवहार का कारण आखिर है क्या? चित्रा को उस ने न कभी प्यार से सहलाया और न गले लगा कर आंसू पोंछे. चित्रा बेचैन और उदास रहने लगी थी. चेहरा मलिन, क्लांत हो गया था.
‘‘कल सुबह जल्दी उठ कर नहाधो लेना. हमारा परिवार एक स्वामीजी का बहुत सम्मान करता है. वे कुछ. महीनों से विदेश गए हुए थे. कल ही लौटे हैं, सुबह उन का आशीर्वाद लेने चलेंगे,’’ उस रात सोने से पहले अभिषेक बोला.