रात काफी बीत चुकी थी. चित्रा सब कह कर बेसुध सी अपने जीवन की कड़वी यादों में डूबी थी. ईशान चाह रहा था कि चित्रा अब सो जाए. कुछ. सोचते हुए चित्रा का हाथ अपने हाथ में ले कर उस ने चित्रा की उंगलियों में अपनी उंगलियां फंसा दीं और बोला, ‘‘फिक्र मत करो, हम सब सुलझ लेंगे बस तुम्हारी उंगलियां मेरी उंगलियों में यों ही उलझ रहनी चाहिए हमेशा.’’
‘‘उलझन में सुलझन,’’ चित्रा खिलखिला कर हंस पड़ी.
चित्रा की हंसी कमरे में चारों ओर बिखरी रही, उन दोनों के सो जाने के बाद भी.
सूरज की किरणें सुबह खिड़की के परदे से छन कर भीतर आईं तो नींद से जागे वे.
कुछ देर बाद साधुपुल के लिए निकल पड़े. आज चित्रा का एक नया ही रूप दिख रहा था. कल तक गुमसुम सी, कम बोलने वाली चित्रा आज चंचल हिरणी सी मदमस्त हो चिडि़या सी चहक रही थी.
‘‘आज गाने नहीं सुनोगे, ईशान?’’ रास्ते में चित्रा पूछ बैठी.
‘‘नहीं, आज मैं तुम्हें सुनूंगा, कितने दिनों बाद इतना बोलते देख रहा हूं तुम्हें,’’ ईशान हौले से मुसकरा दिया.
साधुपुल पहुंच कर छोटी सी धारा के रूप में बहती अश्विनी नदी के आसपास टहलते रहे दोनों. थक गए तो पानी में मेजकुरसियां लगे रैस्टोरैंट में खाना खा कर नदी किनारे आ बैठे. नदी की कल-कल ध्वनि को सुनते हुए पैर पानी में डाले हुए बैठना, पक्षियों की चहचहाहट को महसूस करना और छोटेछोटे लकड़ी के बने कच्चे पुलों पर एकदूसरे का हाथ थामे इस से उस पार आनाजाना, दुनिया को भूले बैठे थे आज वे.
शाम हुई तो नदी किनारे बने टैंटनुमा कमरे में रात बिताने चल दिए. रात को बैड पर ईशान से सट कर बैठी खिड़की से बाहर झांकती चित्रा को देख लग रहा था जैसे जीवन में पहली बार प्रकृति की खूबसूरती देख रही हो.