कभी मेरा चेहरा और कभी शाल को देखने लगीं सोम की मां. सोम की मां ही तो हैं ये...मैं इन का क्या चुरा ले जाता हूं, अगर कुछ पल इन से मिल लेता हूं? जिस के पास समूल होता है उस का दिल इतना छोटा तो नहीं होना चाहिए न. मां तो सोम की ही हैं, वे मेरी थोड़े न हो जाएंगी.
‘‘आज इतने दिनों बाद आया है, बात भी नहीं कर रहा. क्या हुआ है तुझे? बात तो कर बच्चे.’’
सोम सामने चला आया. उस के चेहरे पर विचित्र भाव है.
‘‘बस, मौसीजी...आप को यह शाल देने आया था. अब चलता हूं नहीं तो 7 वाली बस निकल जाएगी.’’
‘‘बैठ, बैठ...हलवा तो खा कर जा. मां ने खास तेरे लिए बनाया है. दिनरात मां तेरे ही नाम की माला जपती हैं. अब आया है तो बैठ जा न,’’ सोम ने कहा, ‘‘इतनी ही देर हो रही है तो आए ही क्यों. मेरे हाथ ही शाल भेज देते न.’’
विचित्र सा अवसाद होने लगा मुझे. जी चाहा, कमरे की छत ही फाड़ कर बाहर निकल जाऊं. और वास्तव में ऐसा ही हुआ. पलक झपकते ही मैं सड़क पर था. सोम मेरे पीछे लपका था और मौसी आवाजें देती रही थीं पर मैं पीछे पलटा ही नहीं.
किसी तरह अपने कमरे में पहुंचा. न जाने कितनी बार मोबाइल पर सोम की कौल आई लेकिन बात नहीं की मैं ने. मैं क्या इतना कंगाल हूं जो किसी की भीख पर जीने लगूं. ऐसी भी क्या कमी है मुझे जो सोम की मां में अपनी ही मां की सूरत तलाशती रहें मेरी आंखें. मां का प्यार तो अथाह सागर होता है जिस में समूल संसार को समेट ले जाने की शक्ति होती है. चाची हैं न मेरे पास जो मुझे इतना प्यार करती हैं. क्यों चला गया मैं सोम के घर पर? क्या जरूरत थी मुझे?