कहीं ऐसा तो नहीं कि उस के अंदर ही कहीं एक ज्वालामुखी धधक रहा था जिस की तपिश ठंड के वेग को छूने भी नहीं दे रही थी, लेकिन उस की देह को दग्ध रखा हुआ था.
सुमित्रा अपनी बात जारी रखे हुए थी, ‘‘पहले अपनेआप से ही संघर्ष किया जाता है, अपने को मथा जाता है और मैं तो इस हद तक अपने से लड़ी हूं कि टूट कर बिखरने की स्थिति में पहुंच गई हूं. सारे समीकरण ही गलत हैं. विकल्प नहीं था और हारने से पहले ही दिशा पाना चाहती थी, इसीलिए चली आई आप के पास. जब पांव के नीचे की सारी मिट्टी ही गीली पड़ जाए तो पुख्ता जमीन की तलाश अनिवार्य होती है न?’’ इस बार सुमित्रा ने प्रश्न किया था. आखिर क्यों नहीं समझ पा रहे हैं वे उस को?
‘‘ठीक कहती हो तुम, पर मिट्टी कोे ज्यादा गीला करने से पहले अनुमान लगाना तुम्हारा काम था कि कितना पानी चाहिए. फिर तलाश खुदबखुद बेमानी हो जाती है. हर क्रिया की कोई प्रतिक्रिया हो, यह निश्चित है. बस, अब की बार कोशिश करना कि मिट्टी न ज्यादा सख्त होने पाए और न ही ज्यादा नम. यही तो संतुलन है.’’
‘‘बहुत आसान है आप के लिए सब परिभाषित करना. लेकिन याद रहे कि संतुलन 2 पलड़ों से संभव है, एक से नहीं,’’ सुमित्रा के स्वर में तीव्रता थी और कटाक्ष भी. क्यों वे उस के सब्र का इम्तिहान ले रहे हैं.
‘‘ठीक कह रही हो, पर क्या तुम्हारा वाला पलड़ा संतुलित है? तुम्हारी नैराश्यपूर्ण बातें सुन कर लगता है कि तुम स्वयं स्थिर नहीं हो. लड़खड़ाहट तुम्हारे कदमों से दिख रही है, सच है न?’’