रात का दूसरा प्रहर था. ट्रेन अपनी रफ्तार से गंतव्य की ओर बढ़ी चली जा रही थी. छवि ने धीरे से कंबल से झांक कर देखा, डब्बे में गहन खामोशी छाई थी. छवि की आंखों से नींद गायब थी. उस का शरीर तो साथ था पर मन कहीं पीछे भाग रहा था.
वह बीए फाइनल की छात्रा थी. सबकुछ अच्छा चल रहा था. उस की सहेली लता ने अपने घर में पार्टी रखी थी, वहीं छवि की मुलाकात रौनक सांवत से हुई थी. पहली ही मुलाकात में रौनक उसे भा गया. वह वकालत की पढ़ाई कर रहा था. उस ने स्वयं को शहर के एक प्रसिद्ध पार्क होटल का एकलौता वारिस बताया. जानपहचान कब प्यार में बदल गई, दोनों को पता न चला. दोनों ने साथ जीनेमरने की कसमें तक खा लीं.
रौनक के प्यार की मीठी फुहार दिनप्रतिदिन छवि को इतना भिगोती जा रही थी कि भोली छवि अपनी मां की बनाई ‘हां’, ‘न’ की मार्यादित लकीर की गिरफ्त से फिसल कर कब बाहर आ गई, उसे पता ही नहीं चला. जब पता चला तब पैर के नीचे से जमीन निकल गई. 2 महीने बाद फाइनल परीक्षा थी. छवि परीक्षा की तैयारी में जुट गई. परीक्षा के प्रथम दिन उस की तबीयत ख़राब लगने लगी. उस का शक सही निकला, वह गर्भवती थी.
उस ने रौनक से बात करने की बहुत बार कोशिश की. हर बार उस का मोबाइल आउट औफ रीच बता रहा था. दूसरी परीक्षा देने के बाद छवि सीधे पार्क होटल पहुंची, वहां किसी ने भी रौनक को नहीं पहचाना. छवि समझ गई, उस के साथ धोखा हुआ है. छवि भारीमन से घर लौट आई. अच्छी तरह से ठगी गई है, इस का एहसास अब उसे हो गया था. मोबाइल का लगातार न लगना भी संदेह की पुष्टि कर रहा था. अपने अल्हड़पन के गलत मोहपाश ने उसे कहीं का न रखा. वह चुपचाप कमरे में बैठी थी. सुखदा ने आ कर बत्ती जलाई.
‘अंधेरे में क्यों बैठी हो छवि, क्या बात है, पेपर अच्छा नहीं गया क्या?’
‘मां, बत्ती मत जलाओ.’
‘क्या हुआ है, बताओ, कुछ हुआ है क्या?’ सुखदा ने घबरा कर पूछा.
‘मां, तुम मुझे मार डालो, मैं जीना नहीं चाहती.’
‘क्या हुआ है, बताओ तो, जल्दी बोलो,’ सुखदा की आवाज में घबराहट थी.
‘मां, मुझ से बहुत बड़ी भूल हो गई, मैं बरबाद हो गई, मैं कहीं की न रही.’
‘साफसाफ कहो, क्या हुआ है, मुझे बताओ, मैं तुम्हारी मां हूं.’
‘मां, मां, मैं प्रैग्नैंट हूं’
‘क्या, यह तुम ने क्या किया छवि, कौन है वह.’
‘मां, वह झूठा निकला. उस ने खुद को पार्क होटल का वारिस बताया. पर यह झूठ है. उस ने मुझे धोखा दिया, मां.’
‘उस ने तुझे धोखा नहीं दिया पागल लड़की. तूने अपनेआप को धोखा दिया. उसे फोन लगा, मैं बात करूंगी.’
‘उस का फोन बंद है मां. मैं होटल गई थी. वहां उसे कोई नहीं जानता. वह झूठा निकला.’
छवि अपनी नादानी पर जारजार रो रही थी. सुखदा की समझ में नहीं आ रहा था वह इस परिस्थिति से कैसे निबटे. आज नहीं तो कल, यह खबर पूरी कालोनी में आग की तरह फैल जाएगी. छवि की बदनामी होगी अलग. उस का जीवन बरबाद हो जाएगा. वह छवि से बोली,
‘मैं डाक्टर से बात करती हूं. खबरदार, अब कोई गलत कदम तुम नहीं उठाओगी, समझी…’
छवि ने हामी में सिर हिलाया.
दूसरे दिन सुखदा छवि को ले कर नर्सिंगहोम गई. आधे घंटे बाद डाक्टर आ कर बोली, ‘सौरी सुखदा जी, गर्भपात नहीं हो पाया. छवि का ब्लडप्रैशर बहुत ज्यादा लो हो जा रहा है, ऐसे में गर्भपात करने से वह भविष्य में वह मां नहीं बन पाएगी.’
‘एकदो दिनों बाद?’ सुखदा ने पूछा.
‘मुझे नहीं लगता है कि यह सभंव हो पाएगा. अगर फिर वही प्रौब्लम हुई तब रिस्क बढ़ जाएगा.’
घर आ कर सुखदा लगातार फोन पर लगी रही. उस ने छवि से कहा, ‘अपना सारा सामान बांध लो, हम लोग परसों कलकत्ता जा रहे हैं. कलकत्ता में मेरी सहेली देविका बोस है. वह महिला उत्थान समिति की प्रबंधक है. तुम को उसी के पास वहीं रहना है. हम आतेजाते रहेंगे.’
‘मां, तुम हम से बहुत नाराज हो न, इसलिए मुझे ख़ुद से अलग कर रही हो?’
‘ख़ुद से अलग नहीं कर रहु छवि. तुम मेरी बेटी हो. तुम को हम अपने से अलग कैसे कर सकते हैं बेटा. तुम्हारे पापा के नहीं रहने के बाद हम तुम को देख कर ही जी पाए. यहां रहना अब ठीक नहीं होगा. मेरी नौकरी, बस, 3 साल और है. सेवानिवृत्ति के बाद हम भी वहीं आ कर साथ रहेंगे.’
कलकत्ता पहुंच कर समिति की प्रबंधक देविका बोस से मिली. 2 दिन रह कर सुखदा वापस पटना लौट आई. उसे छवि के बिना घर बहुत वीराना लग रहा था. आते समय छवि का क्रदंन भी उस के मन को कचोट रहा था, पर वह परिस्थितियों के कारण मजबूर थी. सुखदा ने सभी को बताया छवि परीक्षा के बाद अपने मामा के यहां गई है. छवि 9वीं कक्षा में थी जब उस के पिता दुनिया छोड़ गए. पतिपत्नी एक ही स्कूल में टीचर थे. पति के नहीं रहने के बाद 4 कमरे में फैल कर रहने वाली सुखदा ने उस में किराया लगा दिया और खुद ऊपर बने 2 कमरे और हाल में आ गई. इस से अकेलेपन का भय कुछ हद तक मिट चला था और थोड़े पैसे भी आ गए थे. परिस्थितियों के बदलने से उसे छवि की भलाई के लिए अपने दिल पर पत्थर रख कर यह फैसला लेना पड़ा. छवि का मन भी स्तब्ध था. अनजाने में की गई एक भूल ने उस के जीवन को ऐसे मोड़ पर ला कर खड़ा कर दिया था जहां से निकलने का रास्ता उसे नजर नहीं आ रहा था.
कलकत्ता में समिति में रहने वाली पीड़ित महिलाओं के आत्मविश्वास को बढ़ाने के लिए उन की शिक्षा व योग्यता के आधार पर उपयोगी कक्षाओं का संचालन होता था. समिति में रहने वाली हर महिला का किसी न किसी संस्था में नामांकन जरूरी था ताकि भविष्य में वह आत्मनिर्भर रह सके. निसंतान देविका छवि को अपनी बेटी की तरह प्यार करने लगी. उस का हर संभव प्रयास थे कि वह छवि के खंडित मन को वह फिर से जीवित कर सके.
गरमी की छुट्टियों में जब सुखदा आई तब छवि के पेट का उभार साफ दिखने लगा था. उसे छवि के बढ़ते मनोबल को देख कर बहुत संतोष हुआ कि उस का निर्णय सही था. छुट्टियां बिता कर वह वापस चली गई. नियत समय पर छवि ने एक स्वस्थ और सुंदर बेटे को जन्म दिया. प्रसूतिगृह से अपने कमरे में आने पर छवि लगातार अपने बच्चे को देखने की जिद करने लगी. एक बार तो सुखदा का मन हुआ कि वह छवि के उन्नत भविष्य के लिए झूठ कह दे कि उसे मृत बच्चा हुआ है, लेकिन मां बनी छवि बच्चे के लिए बेचैन हो पूछने लगी, ‘मां, कहां है मेरा बच्चा? प्रसव के बाद मैं ने डाक्टर की आवाज सुनी थी, वे कह रही थीं लड़का है. मैं ने बच्चे की रोने की आवाज़ भी सुनी थी. कहां है मेरा बेटा, बताओ न मां, कहां है मेरा बच्चा?’