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धीरेधीरे नंदा की रुचि, जूही भाभी के बजाय नरेंद्र में बढ़ती गई और नरेंद्र की नंदा में. कई बार जब दोनों की आंखें बोलती होतीं तो जूही की दृष्टि भी उन पर पड़ जाती. परंतु वह उसे अपने मन का वहम समझ लेती या सोचती कि यदि उस की शंका निर्मूल हुई तो नंदा के दुखी हृदय को ठेस पहुंचेगी और नरेंद्र भी उस के बचपने वाले सवाल से उस की अक्ल के विषय में क्या सोचेगा?

पर एक दिन वह सन्न रह गई थी जब उस ने देखा था कि बत्ती चली जाने पर अंधेरे में नरेंद्र ने नंदा को अपनी बांहों के घेरे में ले लिया था और तभी बिजली आ गई थी.

जूही को लगा था जैसे उस के पैरों के नीचे काला सांप आ गया हो, जिसे उस ने दूध पिलाया, वही सर्पिणी बन कर  उस की सुखी गृहस्थी में दंश मार चुकी थी. जिस नरेंद्र को पूर्णरूप से पाने के लिए उस ने संयुक्त परिवार की जड़ों में मट्ठा डाला, वही पराया हो गया. वह जज्ब न कर सकी, ‘तुम लोग इतने नीचे गिर जाओगे, मैं सोच भी नहीं सकती थी.’

फिर उस ने नंदा की ओर देख कर कहा, ‘निकल जा मेरे घर से, और फिर कभी यहां कदम रखने की कोशिश मत करना.’’

नरेंद्र ने बजाय लज्जित होने के त्योरियां चढ़ा लीं और कड़े स्वर में कहा था, ‘घर आए मेहमान से तमीज से बात करना सीखो. रही बात इस के यहां आने की, तो तुम कौन होती हो इसे निकालने वाली? यह घर मेरा है और यहां किसी का आनाजाना मेरी इच्छा से होगा. जिसे यह मंजूर हो, वही यहां रह सकता है, नहीं तो अपना रास्ता देखे.’

जूही समझ गईर् कि रास्ता देखने का संकेत उसी की ओर है. वह सोचने लगी, ‘तो ये इतने आगे निकल चुके हैं. इस घर के स्वप्न को संजोने वाली जूही घर के लिए इतनी महत्त्वहीन हो चुकी है कि एक बेहया औरत के लिए उस की कुरबानी बेधड़क दी जा सकती है?’

फिर तो नरेंद्र के आने के बाद नंदा का उन के घर आना आम बात हो गई. नरेंद्र पर जूही के अनुनयविनय का प्रभाव न होना था, न हुआ. उस ने साफ कह दिया, ‘तुम्हें घर में रहना हो, तो रहो, नहीं तो मैं नंदा के साथ बाकायदा अदालती शादी कर के उसे घर ले आऊंगा और तुम्हें दूसरा रास्ता चुनना होगा.’

इस दूसरे रास्ते के खयाल से ही जूही विकल हो जाती थी. मायके वाले कितने दिन रखेंगे? भाभियों के ताने सुन कर बेशर्मी की रोटियां वह कितने दिन खा सकेगी? भाइयों के अपने परिवार हैं, भाभियों की अपनी इच्छाएं हैं. किसी के लिए कोई क्यों अपनी इच्छाओं का गला घोंटेगा?

जूही का मन डूब रहा था. उसे पार लगाने वाला कोई हाथ दिखाई नहीं पड़ता था. इस दुर्दिन में उस का ध्यान अपनी सास पर गया. एकदम कड़े मिजाज की सास के सामने नरेंद्र भी तो भीगी बिल्ली जैसा बना रहता था. यहां आने के समय भी तो वह उन से मुंह खोल कर कुछ कह नहीं पाया था. अगर वे यहां होतीं, तो क्या नरेंद्र की ऐसी हिम्मत पड़ती या नंदा दिन में 10 बार घर के चक्कर लगा पाती? वह अपराधभाव से ग्रस्त हो गई. यह स्थिति तो वास्तव में उस के न्यारे रहने के काल्पनिक सुख के लिए बोले गए झूठ से ही बनी है. अगर वे आ जाएं तो अब भी बात बन सकती है. मगर वे आएं तो कैसे? वह उन से कहे भी तो किस मुंह से?

अगर वह सास को यहां लाना भी चाहे, तो क्या वे मान जाएंगी? उस के हृदय के दूसरे पक्ष ने उसे आश्वस्त किया कि तू ने अपने स्वार्थ के आगे सास की ममता देखी ही कहां? जब एक बार उसे डायरिया हो गया था, तो हालत खराब हो जाने पर सास ही तो पूरी रात उस के सिरहाने बैठ कर जागती रही थीं.

बहुत सोचसमझ कर उस ने सारी स्थिति पत्र में लिख कर अंत में लिख दिया, ‘वैसे तो मैं स्वयं आप को लेने आती, मगर किस मुंह से आऊं? यह जान लीजिए कि मेरे वहां से हटते ही घर में मेरा रहना भी दूभर हो जाएगा. मैं छोटी हूं. मुझ से गलती हो सकती है, लेकिन उसे क्षमा तो बड़े ही करते हैं. यदि आप नहीं आईं तो मैं समझूंगी, मां की ममता अब दुनिया में नहीं रही, क्योंकि मेरी मां तो है नहीं, मैं आप को ही मां समझती हूं.’

5वें दिन ही हरीश और नवल के साथ मांजी का भारीभरकम स्वर दरवाजे पर सुनाई पड़ा, ‘‘अब दरवाजा खोलोगी भी या नहीं, बस में बैठेबैठे पांव ही टूट गए.’’

उस समय नरेंद्र और नंदा भी घर पर ही थे. मांजी की गंभीर वाणी सुन कर नरेंद्र के चेहरे की हवाइयां उड़ने लगीं. उस ने नंदा को जल्दी से जाने का इशारा कर दिया. पर नंदा जाती तो तब, जब निकलने का दूसरा दरवाजा होता. वह हकबकाई सी खड़ी थी. जूही को तो जैसे मरुस्थल में प्यास से बिलखते व्यक्ति की तरह किसी जलधारा का कलकल स्वर सुनाई दे गया था. उस ने जल्दी से दरवाजा खोला और सास के पैरों पर मत्था रख दिया. वे जोर से बोलीं, ‘‘अरे, अब यह सब नौटंकी बाद में करना. पहले मेरा झोला थाम. मेरे हाथ दुखने लगे हैं,’’ फिर उन्होंने आवाज दी, ‘‘नरेंद्र, नवल के सिर से टोकरी उतार. और हरीश, तू भी अपना मरतबान रख. उजबक की तरह मुंह फाड़े क्या देख रहा है,’’ इस के साथ ही वे आंगन में पड़े पलंग पर बैठ गईं. उन की भीमकाय काया से पलंग चरमरा उठा. उन की तनी आंखों, कड़कदार आवाज और पलंग की चरमराहट ने मिल कर जैसे एक आतंक की सृष्टि कर दी.

नंदा को लगा, शेरनी के आने पर तो परिंदे चीख कर भाग जाते हैं, लेकिन इन के सामने तो चीखने की भी हिम्मत नहीं पड़ेगी. उसे लगा, मांजी की दृष्टि उस को तोल रही है, जैसे कोई बच्चा किसी ढेले को फेंकने से पहले उसे तोलता है. उस का यह असमंजस भांप कर नरेंद्र ने नंदा को जाने का हाथ से इशारा किया. नंदा को जैसे जान मिल गई. उस ने एक कदम ही उठाया होगा कि मांजी अपनी बुलंद आवाज में बोलीं, ‘‘ठहरो, अभी कहां जाओगी. जरा इस को भी मेरी लाई मिठाइयां और फल खाने को दो. यह किस की लड़की है? इतनी बड़ी हो गई, अभी इस की शादीवादी नहीं हुई क्या, देखने से तो ऐसा ही लगता है.’’

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