कहानी- संजय दुबे

सत्यदेव का परिवार इन दिनों सफलता की ऊंचाइयां छू रहा था. बड़ा बेटा लोक निर्माण विभाग में जूनियर इंजीनियर, मझला बेटा बिल्डर और छोटा बेटा अपने बड़े भाइयों का सहयोगी. लगातार पैसे की आवक से सत्यदेव के परिवार के लोगों के रहनसहन में भी आश्चर्यजनक ढंग से बदलाव आया था. केवल 3 साल पहले सत्यदेव का परिवार सामान्य खातापीता परिवार था. बड़ा बेटा समीर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में लगा था तो मझला बेटा सुजय, एक बिल्डर के यहां सुपरवाइजर बन कर ढाई हजार रुपये की नौकरी करता था. छोटा बेटा संदीप कालिज की पढ़ाई पूरी करने में लगा था. सत्यदेव सरकारी विभाग में अकाउंटेंट के पद से रिटायर हुए थे. उन्होंने अपने जीवन के पूरे सेवाकाल में कभी रिश्वत नहीं ली थी इस कारण उन्हें अपनी ईमानदारी पर गुमान था.

2 साल के अंतराल में समीर लोक निर्माण विभाग में जूनियर इंजीनियर बन गया तो सुजय बैंक वालों की मदद से कालोनाइजर बन गया. उधर संदीप का बतौर कांटे्रक्टर पंजीयन करा कर समीर उस के नाम से अपने विभाग में ठेके ले कर भ्रष्टाचार से रकम बटोरने लगा. उधर कालोनाइजिंग के बाजार में एडवांस बुकिंग कराने वालों में सुजय ने अपनी इमेज बनाई तो घर में पैसा बरसने लगा.

पैसा आया तो दिखा भी. पहले घर फिर कार और फिर ऐशोआराम के साधन जुटने लगे. सत्यदेव अपने परिवार की समाज में बढ़ती प्रतिष्ठा को देख फूले नहीं समाते. दोनों बेटों, समीर व सुजय का विवाह भी उन्होंने हैसियत वाले परिवारों में किया था. संयुक्त परिवार में 2 बहुओं के आने के बावजूद एकता बनी रही तो कारण दोनों भाइयों की समझबूझ थी.

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