‘‘जी मैडम, कहिए कहां चलना है?’’
‘‘कनाट प्लेस. कितने रुपए लोगे?’’
‘‘हम मीटर से चलते हैं मैडम. हम उन आटो वालों में से नहीं हैं जिन की नजरें सवारियों की जेबों पर होती हैं. जितने वाजिब होंगे, बस उतने ही लेंगे.’’
मैं आटो में बैठ गई. आटो वाला अपनी बकबक जारी रखे हुए था, ‘‘मैडम, दुनिया देखी है हम ने. बचपन का समय बहुत गरीबी में कटा है, पर कभी किसी सवारी से 1 रुपया भी ज्यादा नहीं लिया. आज देखो, हमारे पास अपना घर है, अपना आटो है.’’
‘‘आटो अपना है?’’ मैं ने पूछा.
‘‘बिलकुल मैडम, किस्तों पर लिया था. साल भर में सारी किस्तें चुका दीं. अब जल्द ही टैक्सी लेने वाला हूं.’’
‘‘इतने रुपए कहां से आए तुम्हारे पास?’’
‘‘ईमानदारी की कमाई के हैं, मैडमजी. दरअसल, हम सिर्फ आटो ही नहीं चलाते विदेशी सैलानियों को भारत दर्शन भी कराते हैं. यह देखो, हर वक्त हमारे आटो में दिल्ली के 3-4 मैप तो रखे ही होते हैं. विदेशी सैलानी एक बार हमारे आटो में बैठते हैं, तो शाम से पहले नहीं छोड़ते. मैं सारी दिल्ली दिखा कर ही रुखसत करता हूं उन्हें. इस से मन तो खुश होता ही है, अच्छीखासी कमाई भी हो जाती है. कुछ तो 10-20 डौलर अतिरिक्त भी दे जाते हैं. लो मैडम, आ गई आप की मंजिल. पूरे 42 रुपए, 65 पैसे बनते हैं.’’
‘‘50 रुपए का नोट है मेरे पास. बाकी लौटा दो,’’ मैं ने कहा.
‘‘मैडम चेंज नहीं है हमारे पास? आप देखो अपने पर्स में.’’
‘‘नहीं है मेरे पास. बाकी 500-500 के नोट ही हैं.’’
‘‘तो फिर छोड़ो न मैडमजी, बाद में कभी बैठ जाना. तब हिसाब कर लेंगे और वैसे भी इतना तो चलता ही है,’’ वह बोला.