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सुधीर गुस्से से कहता चला जा रहा था कि मां ने बीच में टोका, ‘‘बेटा, वे लड़कियां फर्राटे से अंगरेजी बोल लेती हैं, बढि़या डांस कर लेती हैं, परंतु घरगृहस्थी के काम में अकसर उन्हें कुछ नहीं आता है. अंगरेजी बोल लेना, नाच लेना थोड़े दिनों की चकाचौंध है, बाद में घरगृहस्थी ही काम आती है. सामने त्रिपाठीजी के बेटे की बहू को देखते हो, स्मार्ट है, फर्राटे की अंगरेजी बोलती है, संगीत में प्रभाकर की डिगरी ले रखी है, परंतु मिसेज त्रिपाठी दिन भर काम में जुटी रहती हैं, बहूरानी कमरे में पलंग पर लेट कर स्टीरियो सुनती रहती हैं- न सास की लाज न ससुर की इज्जत. जया सुंदर है, पढ़ीलिखी है, घरेलू वातावरण में पलीबढ़ी है, शहर में रह कर सब सीख जाएगी,’’ मां ने सुधीर को समझाते हुए कहा.

‘‘मां, घरगृहस्थी का काम तो एक अनपढ़ लड़की भी कर लेती है. इतना तो मैं कमा ही लेता हूं कि घरगृहस्थी के काम के लिए एक नौकर रख सकता हूं. आजकल शहरों में जगहजगह रेस्टोरेंट व होटल खुल गए हैं, फोन कर दो, मनपसंद खाना घर बैठे आ जाएगा. कुछ सोशल लाइफ भी तो होती है.’’

सुधीर की बातें जया कमरे से सुन रही थी.  उस का एकएक शब्द उस का मन चीरता चला जा रहा था. जया को अपनी मां पर भी क्रोध आया कि उन्होंने कितने पुराने संस्कारों में उसे ढाल दिया. उस ने महिला कालेज से बी.ए. पास किया था और साइकोलोजी से एम.ए. करना चाहती थी. साइकोलोजी केवल क्राइस्टचर्च कालेज में पढ़ाई जाती थी, जहां सहशिक्षा थी. लड़केलड़कियां एकसाथ पढ़ते थे. मां कितनी मुश्किल से क्राइस्टचर्च में एडमिशन के लिए तैयार हुई थीं.

जया कालेज जाती थी मां तो हिदायतों की पूरी की पूरी लिस्ट उसे दे देती थी. कि लड़कों के पास मत बैठना, लड़कों से बात मत करना, अगर कुछ पूछना जरूरी हो तो नीचे नजर डाल कर धीरे से बोलना.

मां ने कितने उदाहरण दे डाले थे कि सीधीसादी लड़कियों को कालेज के लड़के बरगला कर गलत रास्ते पर ले जाते हैं. लाइब्रेरी में लड़कों के साथ बैठ कर पढ़ने की इजाजत मां ने कभी नहीं दी. इसी कारण उस का एम.ए. का डिवीजन बिगड़ गया था. मां ने घर से अकेले कभी निकलने ही नहीं दिया.

एक दिन मां के साथ वह पिक्चर देखने गई थी. उस के पास एक लंबी लड़की बौय कट बालों में जींस पहने बैठी थी. अंधेरे में मां को शक हुआ कि यह लड़का है. मां उचकउचक कर देखने लगीं तो उसे थोड़ा गुस्सा आ गया और ‘यह लड़का नहीं लड़की है’, उस के मुंह से चिल्लाहट भरे स्वर ऐसे निकले कि आसपास के लोग उन्हें घूरघूर कर देखने लगे.

मां तो आश्वस्त हो कर बैठ गई थीं, परंतु उस का मन पिक्चर में फिर न लग सका था. अगर इतने पुराने संस्कारों में पाला था तो इतने एडवांस घर में उस की शादी क्यों कर दी, जहां शालीनता को मूर्खता समझा जाता?

एक दिन मां कह रही थी कि तुम्हारे पिताजी चाहते थे कि उन की बेटी की शादी बड़े घर में हो, जहां नौकरचाकर, कार व बंगला जाते ही मिल जाए.

मां की कितनी निर्मूल धारणा है. ऐसे बड़े घर का क्या करना, जहां भौतिक सुख की सारी सुविधाएं हों, परंतु मन को एक पल भी चैन न मिले.

एक शाम कपड़े पहन कर तैयार हो कर सुधीर कहीं जा रहा था. उस ने इतना ही पूछ लिया था, ‘‘कहां जाने की तैयारी है?’’

सुधीर कितनी जोर से बिगड़ पड़ा था,

‘‘मैं कहां जाता हूं, कहां उठताबैठता हूं, किस से बात करता हूं, इस में तुम हर समय टांग अड़ाने वाली कौन होती हो? तुम्हें हाई सोसाइटी में उठनेबैठने की तमीज नहीं है, तो क्या मैं भी उठनाबैठना बंद कर दूं?’’

जया के संस्कार परंपरागत अवश्य थे, परंतु उस का व्यक्तित्व स्वाभिमानी था. रोजरोज का अपरोक्ष तिरस्कार तो वह किसी प्रकार सहन कर लेती थी, पर इस अनावश्यक प्रताड़ना से उस के मन में विद्रोह जाग उठा. उस ने सोच लिया कि वह अपने को बदल कर सुधीर को सीख जरूर देगी.

अगले जाड़ों में दिल्ली में उस की सहेली लता की बहन की शादी थी. उस ने शादी के निमंत्रणपत्र के साथ मम्मीजी के नाम एक विनयपूर्वक पत्र भी लिखा था, जया को इस विवाह समारोह में सम्मिलित होने की आज्ञा दे दें.

मम्मीजी ने पत्र सुधीर को दिखाया. सुधीर के पास छुट्टी नहीं थी और जया के

प्रति उस के मन में ऐसी खटास थी कि उसे जया से कुछ दिन दूरी की बात राहत देने वाली ही लगी. उस ने उसे अकेले चले जाने को तुरंत कह दिया. जाने के लिए निश्चित हुए दिन सुधीर जया को फर्स्ट क्लास एसी में ट्रेन में बैठा आया. ट्रेन के चलते ही जया ने भी एक स्वतंत्रता की सांस ली. उस के मन में स्फूर्ति भरती जा रही थी. रास्ते के दृश्य उसे बहुत सुहावने लग रहे थे.

नई दिल्ली स्टेशन पर उस की सहेली लता व उस के पति शैलेंद्र उसे लेने आए थे. जया के ट्रेन से उतरते ही लता जया से लिपट गई. कालेज छोड़ने के एक अरसे बाद दोनों सहेलियां आपस में मिल रही थीं.

लता के घर पहुंच कर जया को लगा कि वह किसी दूसरी दुनिया में पहुंच गई है. विवाह हेतु घर की सज्जा सुरुचिपूर्ण थी.

दूसरे दिन बरात आने वाली थी. केले के पत्तों व फूलों से सजाया गया था. बाहर पंडाल में बरातियों के बैठने व खानेपीने की व्यवस्था थी. मेहमानों से घर भरा था, बरात मेरठ से दिल्ली आ रही थी.

दूसरे दिन शाम को बरात खूब धूमधाम से चढ़ी. दूल्हा पक्ष के लड़कों व कन्या पक्ष की लड़कियों में खूब हंसीमजाक चल रहा था. हंसी के फुहारे छूट रहे थे. जया इस प्रकार के खुलेपन को आश्चर्य से देख रही थी. रात में विवाह हुआ, दूसरे दिन अपराह्न को बरात विदा होने वाली थी. सुबह चायनाश्ते के बाद वर पक्ष की कुछ चुलबुली लड़कियों ने कन्या पक्ष के कुछ मनचले लड़कों को घेर लिया. लच्छेदार मीठीमीठी बातें कीं और शहर घुमाने का प्रोग्राम बना डाला.

लड़कियां लड़कों के साथ खूब घूमीं, पिक्चर देखी और रेस्टोरेंट में खायापिया.

बाद में लड़कों को अंगूठा दिखा कर बरातियों में आ मिलीं. जया ने आश्चर्यपूर्वक सुना कि लड़कियां आपस में ठहाके लगा रही थीं, ‘बड़े मजनू बनने चले थे, 2-4 हजार रुपयों के चक्कर में तो आ ही गए होंगे. सब को याद रहेंगी मेरठ की लड़कियां.’ अब जया सुधीर की तथाकथित स्मार्टनेस का मतलब समझ रही थी.

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