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मेरी नवविवाहिता पुत्री चंद्रा जब पहली बार अपनी ससुराल में कुछ दिन बिता कर लौटी, तो अपनी सास की प्रशंसा करते नहीं थकती थी. उस की जिन 2 सहेलियों को अपनीअपनी सासों से शिकायत थी, उन के बारे में वह कहा करती थी, ‘‘नीता और गुड्डो की सासुओं को तो मेरी सास से मिला देना चाहिए, तब उन्हें पता चलेगा कि सास क्या होती है.’’

लेकिन दूसरी बार जब चंद्रा कुछ अधिक दिन बिता कर ससुराल से लौटी, तो प्रशंसा का स्थान निंदा ने ले लिया था. मैं आहत सी हो गई. सोचने लगी, इस की सास अपर्णाजी ऊपर से तो बड़ी भली लगती हैं, पर इस की बातों से तो लगता है कि अंदर से वे महाखोटी हैं.

मैं कुछ पूछूं या न पूछूं, बिटिया दिन भर उन की शिकायत करती रहती. कभीकभी मुझे लगता, चंद्रा कुछ ज्यादा ही बोल रही है. एक दिन वह बोली, ‘‘मैं तो वहां भरपेट खाना भी नहीं खाती.’’

‘‘क्यों? क्या वहां कोई तुम्हें खाने से रोकता है? तुम ने तो पहले बतलाया था कि वहां खाने की मेज पर तुम लोग सब अपने हाथ से अपने मन का ले कर खाते हो.’’

‘‘मन का कुछ बने, तब न कोई मन का खाए. मेरी पसंद का कुछ रहता ही नहीं.’’

‘‘बातबात में तुम बता दिया करो कि तुम्हें क्या पसंद है और क्या नापसंद. वैसे घरपरिवार में सब की पसंद का तो रोज एक साथ बन नहीं सकता. कुछ औरों की पसंद की चीजें भी खाना सीखो.’’

वह बिगड़ उठी, ‘‘तुम भी उन्हीं की तरह बोलने लगीं. जो चीज नहीं भाए, उसे कैसे खाए आदमी?’’

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