‘‘अरे, अब बस भी करो रघु की मां, क्या बहू को पूरी दुकान ही भेज देने का इरादा है?’’
‘‘मेरा बस चले तो भेज ही दूं, पर अब अपने हाथों में इतना दम तो है नहीं. अरे, कमिश्नर की बेटी है कितना तो दिया है शादी में बेटी को. थोड़ा सा शगुन भेज कर हमें अपनी जगहंसाई करानी है क्या? मीनाक्षी, जरा गुझिया में खोया ज्यादा भरना वरना रघु की ससुराल वाले कहेंगे कि हमें गुझिया बनानी ही नहीं आती.’’
मीनाक्षी का मन कसैला हो उठा. इतनी आवभगत से कभी उस के मायके तो गया नहीं कुछ. मानते हैं, उस की शादी 10 वर्ष पूर्व हुई थी, उस समय के हिसाब से उस के बाबूजी ने खर्च भी किया था. पर उस की पहली होली जब मायके में पड़ी थी तब तो अम्माजी ने इतने मनुहार से कुछ नहीं भेजा था. पर यहां तो समधिन से ले कर छोटी बहन तक के कपड़े भेजे जा रहे हैं. ऊपर से बातबात में नसीहत दी जा रही है, ‘यह ठीक से रखो’, ‘यह सस्ता लग रहा है’, ‘इस में मेवा कम है’ आदि.
मखमल की चादर में टाट का पैबंद लगा हो तो दूर से झलकता है, पर रेशमी चादर में मखमल का पैबंद लग जाए तो उसे अच्छा समझा जाता है. मीनाक्षी की ससुराल भी ऐसी ही थी. मध्यम वर्ग के प्राणी थे. मीनाक्षी आई तो घर की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी न थी. पति बाट व माप निरीक्षक थे. दोनों छोटे देवर पढ़ रहे थे, ननद विवाह के योग्य थी.
कितना कुछ तो सहा और किया था उस ने. यदि उंगलियों पर गिनना चाहे तो गिनती भूल जाए. उस ने गिनने का प्रयास भी कभी न किया. पर आज ही नहीं, देवर की शादी के बाद मधु के आगमन के साथ ही अम्माजी का सारा स्नेह मधु पर ही बरसते देख उस का मन खिन्न हो उठा था.