कहानी के बाकी भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

पढ़ाई के अलावा उन दोनों को कुछ और सू झता ही कहां था. हां, उन के प्रेम प्रसंग पर कालेज के कुछ लड़केलड़कियां चुटकियां जरूर लेते. कभी वह सोचती कि ये कालेज में उन के सीनियर तो नहीं थे. पर रमन ने सीनियर्स के होने की संभावना से इनकार कर दिया.

तभी जयश्री को ध्यान आया कि उस के घर और गांव में भी इस अंतरजातीय  प्यार का बहुत विरोध हुआ था.कही उस के गांव के लोग तो नहीं? मगर उन के पास दिल्ली का पता कहां से आएगा? वह सोचविचार में मग्न थी. तभी उसे याद आया कि एक बार पासपोर्ट के लिए अप्लाई करने पर उस के कुछ जरूरी कागजात वैरिफिकेशन के लिए गांव गए थे. इस के लिए उस ने अपना दिल्ली का पता दिया था.

जयश्री का शक यकीन में बदलने लगाऔर शक की सूई दिल्ली में रहने वाले अपने पड़ोसी गांव के सुनील की ओर घूम गई. इस से पहले भी जब वह गांव गई थी तो कितना अपमान सहना पड़ा था उसे. न जाने कैसे गांव के लोगों को खबर लग गई कि वह अपने सहपाठी के प्रेम में पड़ गई है. प्रेमी के बारे में पूछताछ हुई. लड़का दलित जाति का है, यह पता लगने पर तो मां बाप और भाइयों ने उसे बहुत ताने सुनाए. दरअसल, पास के गांव का ही एक लड़का दिल्ली में रह कर नौकरी कर रहा था और एक बार जयश्री के मातापिता ने उस के लिए गांव से कुछ सामान भेजा, वहीं से उसे इस बात की खबर लग गई थी. गांव में तो इस तरह की बातें आग की तरह फैलती हैं. मांबाप तो पढ़ाईलिखाई छुड़ाने को ही आमादा थे. वह तो उस ने किसी तरह गिड़गिड़ा कर उन से विनती करी तो चेतावनी दे कर छोड़ दिया गया.

उत्तराखंड का सुदूर पर्वतीय अंचल. सामाजिक बंधन बहुत कड़े थे. मान्यताओं, परिपाटियों को वर्षों से बिना किसी बदलाव के और तार्किक विचार के निभाया जाना हमेशा से ग्रामीण अंचल की विशेषता रही है. इस गांव में सिर्फ ब्राह्मण परिवार ही रहते थे. पंडितजी की बेटी जयश्री बहुत मेधावी थी. 8वीं कक्षा में एकीकृत परीक्षा में उत्तीर्ण करने पर शहर के स्कूल में एडमिशन मिल गया. कुछ दिन दुविधा के  झूले में  झूलने के बाद पिता और अन्य परिवार वाले उस भेजने पर सहमत हो गए.

गांव में सुखसुविधाओं का अभाव था, लेकिन शहर पहुंच कर जयश्री को खुला आकाश मिल गया. मेधावी तो वह थी ही, उस की योग्यता को पहचान कर फिजिक्स के शिक्षक ने उसे आगे चल कर जेईई परीक्षा की तैयारी करने की प्रेरणा दी, साथ में परीक्षा के बारे में जानकारी भी दी. उन दिनों हौस्टल में रहने वाले बच्चों के लिए स्कूल के बाद ऐक्स्ट्रा क्लासेज भी होती थीं, जिस में उन्हें प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए पढ़ाया जाता था.

आईआईटी परीक्षा पास करना जयश्री ने अपना लक्ष्य बना लिया था. खूब मेहनत की थी उस ने और देखते ही देखते परिणाम वाला दिन भी आ गया. मैंस और एडवांस दोनों ही परीक्षाओं में उस ने बेहतरीन प्रदर्शन किया था. आखिरकार उस ने जेईई एडवांस के माध्यम से आईआईटी में होने वाले दाखिले को ही चुना.

जयश्री की खुशी का तब कोई ठिकाना न रहा जब उसे आईआईटी दिल्ली में इलेक्ट्रौनिक्स ऐंड कम्युनिकेशन ब्रांच मिली. गांव की वह पहली बेटी थी जो आईआईटी में पढ़ने जा रही थी. इस से कई वर्षों पहले पड़ोस के गांव के मात्र एक लड़के ने आईआईटी की परीक्षा पास की थी. गांव में खुशी का माहौल था. अधिकतर ग्रामीण आईआईटी संस्थान के बारे में कुछ नहीं जानते थे. बस इतना पता था कि पंडितजी की बेटी किसी बड़ी परीक्षा में पास हो गई है और 4 साल बाद बड़ी इंजीनियर बनेगी. स्कूल से अपनी मार्कशीट और ट्रांसफर सर्टिफिकेट ले कर वह जरूरी सामान लेने अपने गांव गई और कुछ समय बाद बड़े भाई के साथ काउंसलिंग के लिए रवाना हो गई.

 

जयश्री को गर्ल्स हौस्टल में कमरा भी मिल गया. दीपक बड़े भाई होने का फर्ज निभाते हुए उसे कुछ जरूरी निर्देश देने के बाद गांव लौट गया.कुछ दिनों में कालेज में पढ़ाई भी शुरू हो गई. जयश्री का परिवार इस बात को लेकर निश्चिंत था कि लड़की का भविष्य सुरक्षित हो गया. फिर भी परिवार वाले डरते और उस से सिर्फ पढ़ाई और पढ़ाई में ही ध्यान देने की सलाह बारबार देते.

 

कालेज में पढ़ने वाली एक जवान लड़की जहां साथ में बहुत सारे लड़के भी हों, ऐसा कैसे संभव हो सकता कि वह सिर्फ पढ़ाई पर ही ध्यान देती? इंट्रोडक्शन वाले दिन उस की जानपहचान कंप्यूटर साइंस के छात्र रमन से हुई. आईआईटी दिल्ली में कंप्यूटर साइंस मिलना गौरव की बात थी. बातों ही बातों में जयश्री को पता चला कि रमन को तो आईआईटी मद्रास में कंप्यूटर साइंस मिल रही थी परंतु उस के मातापिता के लिए उतनी दूर भेजना संभव नहीं था. गाजियाबाद के पास ही किसी गांव में उस का घर था, इसलिए उसे दिल्ली में एडमिशन लेने के लिए राजी करा लिया गया.

गाजियाबाद के पास एक गांव जहां पर अधिकतर दलित परिवार रहते थे, पक्के मकान बहुत कम थे. छपरों में गुजारा होता था. लोगों की धर्म में भी बहुत अधिक आस्था नहीं थी क्योंकि जिस धर्म में जीने की आज़ादी मिल जाए उसी का अनुसरण कर लेते थे. अंधाधुंध फ्लैट्स के निर्माण की वजह से खेती तो अब बची नहीं थी. यहां के मर्द कोई भी छोटामोटा काम पकड़ लेते और महिलाएं सोसाइटी में जा कर लोगों के घरों में काम करतीं क्योंकि वहां पर रहने वाले युवावर्ग को इन की बहुत जरूरत थी और जातिपाती पर भी उन का कोई विश्वास नहीं था.

इसी गांव से निकला था गुदड़ी का लाल रमन. चिथड़ो में पलाबढ़ा पर ठान लिया था कि जिस आईटी इंजीनियर के घर उस की मां  झाड़ूपोंछा, बरतन करने जाती है, उसी के बराबर बनूंगा और जब लगन लग जाए तो मंजिल पाने से कौन रोक सकता है… सरल स्वभाव का यह मेधावी छात्र जयश्री के मन को भा गया. समय के साथसाथ ये जानपहचान अच्छी दोस्ती में बदल गई और पता भी न चला कि कब प्यार में. तभी जयश्री को पता चला कि रमन दलित परिवार से है और उस का परिवार आर्थिक मामले में भी काफी पिछड़ा हुआ. लेकिन प्यार ये सब कहां देखता है? आखिर प्यार है कोई व्यापार नहीं. हां, कभीकभी घरपरिवार का डर उसे सताना कि कभी तो बताना ही पड़ेगा. कैसे बता पाएगी… जैसे कई सवाल उस के मन को परेशान करने लगे.

एक कट्टरवादी ब्राह्मण परिवार दलित लड़के को अपने दामाद के रूप में स्वीकार कर पाएगा यह कहना मुश्किल था. लेकिन उसे यह भी डर था कि अगर इन सब बातों में उल झी रहेगी तो वह अपने लक्ष्य से भटक जाएगी. लक्ष्य यही था कि अच्छे सीजीपीए से बैचलर डिगरी मिले और आगे की राह आसान हो जाए.

थर्ड ईयर के आखिरी सेमैस्टर में रमन को माइक्रोसौफ्ट कंपनी से इंटर्नशिप का औफर मिला और वह यूएसए चला गया. जय श्री समर वैकेशन में बैंगलुरु जा कर इंटर्नशिप करने लगी. दोनों का ही आगे पढ़ने का विचार था. इस दौरान कुछ समय नौकरी कर पैसा बचा लेना चाहते थे क्योंकि घर वालों से और उम्मीद करना उचित नहीं था. 4 साल तो होस्टल में कट गए थे. आगे रहने का इंतजाम खुद ही करना था. दोनों यह फ्लैट ले कर रहने लगे और जयश्री के गांव के गुंडे यहां भी पहुंच गए.

लिवइन में रहने का फैसला यों ही नहीं ले लिया. आर्थिक पहलू तो था ही. अपना बचाव भी जरूरी था क्योंकि कालेज में भी कई तथाकथित रसूखदार छात्रछात्राएं उन के प्रेम का मखौल बनाते. विदेशी कंपनियों से रमन के लिए औफर आना उन्हें फूटी आंखें नहीं सुहाता.

इसी बीच रमन को डेढ़ लाख डालर का औफर विदेशी कंपनी से मिला पर उसे धुन थी अपने परिवार के साथ रहने की, अपने देश के लिए कुछ करने की. वह नहीं गया. इस पर भी कुछ साथी छात्र उसे आरक्षण की बैसाखी का तंज कसते, कभी प्रोफैसरों की कृपा का पात्र होने का. जबकि सचाई यह थी कि उस ने आरक्षण लेने के बावजूद बहुत मेहनत की थी और अपने संबंधित प्रोफैसरों के साथ भी वह कुछ न कुछ नया सीखने के लिए ही जीजान से लगा रहता. प्रोजैक्ट के नाम पर प्रोफैसरों के पास विदेशी कंपनियों से काफी  आर्थिक सहायता आती, जिस का वितरण प्रोजैक्ट में काम करने वाले छात्रों खासकर रिसर्च स्टूडैंट्स के बीच में होता. इन के साथ रमन को भी छोटीछोटी आर्थिक सहायता हो जाती तो उस का खर्च चलाना आसान हो जाता.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...