‘‘मैं बहुत परेशान हूं, सोम. कोई मुझ से प्यार नहीं करता. मैं कभी किसी का बुरा नहीं करती, फिर भी मेरे साथ सदा बुरा ही होता है. मैं किसी का कभी अनिष्ट नहीं चाहती, सदा अपने काम से काम रखती हूं, फिर भी समय आने पर कोई मेरा साथ नहीं देता. कोई मुझ से यह नहीं पूछता कि मुझे क्या चाहिए, मुझे कोई तकलीफ तो नहीं. मैं पूरा दिन उदास रहूं, तब चुप रहूं, तब भी मुझ से कोई नहीं पूछता कि मैं चुप क्यों हूं.’’
आज रज्जी अपनी हालत पर रो रही है तो जरा सा अच्छा भी लग रहा है मुझे. कुछ महसूस होगा तभी तो बदल पाएगी स्वयं को. अपने पांव में कांटा चुभेगा तभी तो किसी दूसरे का दर्द समझ में आएगा.
मेरी छोटी बहन रज्जी. बड़ी प्यारी, बड़ी लाड़ली. बचपन से आज तक लाड़प्यार में पलीबढ़ी. कभी किसी ने कुछ नहीं कहा, स्याह करे या सफेद करे. अकसर बेटी की गलती किसी और के सिर पर डाल कर मांबाप उसे बचा लिया करते थे. कभी शीशे का कीमती गिलास टूट जाता या अचार का मर्तबान, मां मुझे जिम्मेदार ठहरा कर सारा गुस्सा निकाल लिया करतीं. एक बार तो मैं 4 दिन से घर पर भी नहीं था, टूर पर गया था. पीछे रज्जी ने टेपरिकौर्डर तोड़ दिया. जैसे ही मैं वापस आया, रज्जी ने चीखनाचिल्लाना शुरू कर दिया. तब पहली बार मेरे पिता भी हैरान रह गए थे.
‘‘यह लड़का तो 4 दिन से घर पर भी नहीं था. अभी 2 घंटे पहले आया और मैं इसे अपने साथ ले गया. बेचारे का बैग भी बरामदे में पड़ा है. यह कब आया और कब इस ने टेपरिकौर्डर तोड़ा. 4 दिन से मैं ने तो तेरे टेपरिकौर्डर की आवाज तक नहीं सुनी. तू क्या इंतजार कर रही थी कि कब सोम आए और कब तू इस पर इलजाम लगाए.’’