‘‘आखिर इस में बुराई क्या है बाबूजी?’’ केदार ने विनीत भाव से बात को आगे बढ़ाया.

‘‘पूछते हो बुराई क्या है? अरे, तुम्हारा तो यह फैसला ही बेहूदा है. अस्पतालों के दरवाजे क्या बंद हो गए हैं जो तुम ने अनाथालय का रुख कर लिया? और मैं तो कहता हूं कि यदि इलाज करने से डाक्टर हार जाएं तब भी अनाथालय से बच्चा गोद लेना किसी भी नजरिए से जायज नहीं है. न जाने किसकिस के पापों के नतीजे पलते हैं वहां पर जिन की न जाति का पता न कुल का...’’

‘‘बाबूजी, यह आप कह रहे हैं. आप ने तो हमेशा मुझे दया का पाठ पढ़ाया, परोपकार की सीख दी और फिर बच्चे किसी के पाप में भागीदार भी तो नहीं होते...इस संसार में जन्म लेना किसी जीव के हाथों में है? आप ही तो कहते हैं कि जीवनमरण सब विधि के हाथों होता है, यह इनसान के वश की बात नहीं तो फिर वह मासूम किस दशा में पापी हुए? इस संसार में आना तो उन का दोष नहीं?’’

‘‘अब नीति की बातें तुम मुझे सिखाओगे?’’ सोमेश्वर ने माथे पर बल डाल कर प्रश्न किया, ‘‘माना वे बच्चे निष्पाप हैं पर उन के वंश और कुल के बारे में तुम क्या जानते हो? जवानी में जब बच्चे के खून का रंग सिर चढ़ कर बोलेगा तब क्या करोगे? रक्त में बसे गुणसूत्र क्या अपना असर नहीं दिखाएंगे? बच्चे का अनाथालय में पहुंचना ही उन के मांबाप की अनैतिक करतूतों का सुबूत है. ऐसी संतान से तुम किस भविष्य की कामना कर रहे हो?’’

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