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पोस्टमैन ने हाथ में पकड़ा दिया एक भूरा लिफ़ाफ़ा. तीसचालीस साल पहले इसे सरकारी डाक माना जाता था. लिफ़ाफ़ा किस दफ़्तर से आया? कोने में एक शब्द ‘प्रेषक’ लिखा दिखाई दे रहा था. आगे कुछ लिखा तो है पर अस्पष्ट है.

सरकारी मोहर ऐसी ही होती थी. उस के मजमून से ही भेजने वाले दफ्तर का पता चलता. उत्सुकता से लिफ़ाफ़ा खोला औऱ खुशी से उछल पड़ा.

सुदूर गांव की प्राइमरी पाठशाला में मुझे शिक्षक की नियुक्ति और तैनाती देने की बाबत आदेश था और अब भूरा सरकारी लिफ़ाफ़ा मुझे रंगीन नज़र आने लगा.

‘गांव की पाठशाला…’ एक पाठ था बचपन में. साथ में अनेक चित्र दिए थे उस पाठशाला के ताकि  शहर के बच्चों को पाठ की वस्तुस्थिति सचित्र दिखाई जा सके. वे सभी चित्र अब मेरी आंखों के सामने आ गए…

साफसुथरा स्कूल.  छोटा सा मैदान. उस में खेलतेदौड़ते बच्चे. 2 झूले भी, जिन पर बालकबालिकाएं झूलती दिख रही होतीं. वहीं सामने लाइन से बने खपरैल वाले क्लास के 4 कमरे, अंदर जूट की लंबीलंबी रंगीन टाटपट्टियां. ऊपर घनी छांव डालते नीम और आम के पेड़. ध्यान से देखने पर एकदो चिड़िया भी बैठी दिख गईं डाल पर. एक क्लास तो पेड़ के नीचे ही लगी थी.

तिपाये पर ब्लैकबोर्ड था. मोटे चश्मे में सदरी डाले माटसाब पढ़ा रहे थे.स्कूल का घंटा पेड़ की एक डाल से ही लटका था जिसे एक सफेद टोपी लगाए चपरासी बजा रहा होता. ईंटों पर रखा मटका और पानी पीती एक बच्ची.

कक्षा के दरवाज़े से अंदर दिखतेपढ़ाते गुरुजी और ध्यान लगा कर पढ़ते बच्चे. कमीजनिक्कर में लड़के और लाल रिबन लगाए बच्चियां, सब गुलगोथने और लाललाल गाल वाले प्यारेप्यारे.

दूर पीछे  गांव के खेत, तालाब और झोपड़ियां दिख रही थीं, जिनके आगे भैंसगाय हरा चारा खा रही होतीं. गांव की तरफ़ एक सड़क मोड़ ले कर आती दिख रही थी. आकाश में सफ़ेद कपास के जैसे उड़ते बादल और साथ में एक पक्षियों की टोली.

शायद हवा पुरवाई चल रही होगी, पर तसवीरों में पता नहीं चलता हवा के रुख का. सरकारी किताब थी, इसलिए सबकुछ ठीकठाक ही नहीं, अत्यंत मनमोहक दिखाना मजबूरी थी चित्रकार की शायद. असलियत दिखा कर भूखे थोड़े ही मरना था.

गांव के स्कूल की वही पुरानी किताबी तसवीरें मन में उतारे मैं बस में बैठ गया. गांव में रहनेखाने का क्या होगा, अख़बार मिलेगा या नहीं, कितने बच्चे होंगे, सहशिक्षक, प्रिंसिपल, क्लर्क,  चपरासी  आदि सोचते हुए मेरा सिर सीट पर टिक गया था.

‘ए बाबू साहब, मटकापुर आय गवा, उतरो,’  कंडक्टर ने कंधा पकड़ कर उठाया. मेरे एक बक्सा, झोला और होल्डाल ले कर सड़क पर टिकते  ही बस धुआंधूल उड़ाती आगे निकल गई.मेरे साथ ही एक सवारी और उतरी थी, एक महिला, उस के साथ 2 बच्चे. उन्हें लेने 2 मर्द साइकिलों से आए थे. एक साइकिल पर बच्चे और दूसरी पर पीछे वह महिला बैठ गई.

मुझे ऐसा आभास हुआ कि महिला साथ आए पुरुष को मेरी तरफ़ इशारा कर के कुछ बता रही थी. पुरुष ने एक उचटती सी नज़र मुझ पर मारी, सिर हिलाया और साइकिल पर बैठ कर पैडल मारता चल दिया.

‘होगा कुछ,’ मैं ने मन ही मन सोचा और रूमाल से चेहरा पोंछ कर चारों तरफ नज़र दौड़ाई. दूरदूर तक गांव का कोई निशान नहीं था. इकलौती  पगडंडी सड़क से उतर कर खेतों की तरफ जाती सी लगी. मैं उसी पर बढ़ लिया और मुझे चित्र की ग्रामीण सड़क याद आ गई. पता नहीं वह कौन सा गांव था, यह वाला तो पक्का नहीं था.

कभी इतना बोझा मैं ने उठाया नहीं था. ऊपर से मंज़िल और रास्ते की लंबाई भी अज्ञात थी व दिशा अनिश्चित. तभी सामने से गमछा डाले एक आदमी साइकिल पर आता दिखाई दिया. मैं कुछ कहता, इस के पहले ही वह खुद पास आ गया, साइकिल से उतरा और सवाल दाग दिया, ‘कौन हो, कौन गांव जाए का है?’ गांव में आप को परिचय देना नहीं पड़ता, आप से लिया जाता है.

रास्तेभर में मेरा पूरा नाम, जाति, जिला, पिताजी, बच्चे, परिवार आदि की पूरी जानकारी साइकिल वाले को ट्रांसफर हो चुकी थी. बीसपचीस कच्चे और दोतीन मकान पक्के यानी छत पक्की वाले दिखने लगे. मेरी पोस्टिंग वाला गांव आ चुका था- मटकापुर.

यह वह तसवीर वाला गांव नहीं ही था.  समझ आने लगा कि चित्रकार के रंगों का गांव हक़ीक़त से कितना अलग होता है. वह कभी मटकापुर आया नहीं होगा. कूची भी झूठ बोलती है. गांव के स्कूल का नया ‘मास्टर’ आया है, यह ख़बर जंगल की आग बन गांव में फ़ैलने लगी. बड़ेबूढ़े जुटने लगे. कौन हैं, कौन गांव, जिला, पूरा नाम, जाति सब बारबार पूछा और बताया जा रहा था.

मेरे नाम का महत्त्व नाम के साथ दी गई अनावश्यक  जानकारी के आधार पर ही लगाया जाने लगा. किसी को समझ आया, कुछ सिर हिला रहे थे, ‘पता नहीं को है, किते से आए.’ ख़ैर, मैं जो भी था, प्रारंभिक आवभगत में कमी नहीं हुई. गांव में जो व्यक्ति मेरी बिरादरी के सब से क़रीब साबित हुए, उन का ही धर्म बन गया मुझे आश्रय देने का. खाना हुआ और सोने के लिए खटिया डाल दी गई.

मैं अनजाने में और घोर अनिच्छा से पहले ही दिन गांव के लोगों के एक धड़े में जा बैठा था. गांव मे न्यूट्रल कुछ नहीं होता. हर आदमी होता है इस तरफ का या दूसरी तरफ  या ऊंचा या नीचा. चुनो या न चुनो. एक पाले की मोहर तो लग ही जाएगी, मतलब  लगा दी जाएगी आप की शख्सियत के लिफ़ाफ़े पर.

यह मोहर सरकारी वाली नहीं, सामाजिक होती है जो दूर से ही दिख जाती है. इस का छापा जन्मभर का होता है.

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