मीरा अपनी बात पूरी कर पाती उस से पहले ही विजय बोल उठा, ‘‘2 लोग नहीं मीरा... मैं तो ज्यादातर दादादादी के पास ही रहता हूं... मुझे वहां अच्छा नहीं लगता. कभीकभार ही वहां जाता हूं.’’
‘‘कभीकभार जाने का मतलब?’’ मीरा ने हैरानी से पूछा, ‘‘कभीकभार जाओगे तो उस घर में रचोगेबसोगे कैसे?’’
‘‘मुझे वहां रचबस कर क्या करना है मीरा? मेरे अपने पिता का घर है न मेरे पास... मेरी मां का घर है वह, उन्हें वहां रचनाबसना है और वह पूरी तरह रचबस भी गई हैं वहां. इस का प्रमाण यह है कि मैं अगर 2-4 दिन मिलने न भी जाऊं तो भी उन्हें पता नहीं चलता. इतनी व्यस्त रहती हैं वे अपनी नई गृहस्थी को सजानेसंवारने में कि मुझ से पूछती भी नहीं कि इतने दिन से मैं आया क्यों नहीं मिलने? दादाजी और मैं यही तो चाहते थे कि मां को जीवनसाथी मिल जाए और वे अकेली न हों.’’
‘‘तुम ने तो पहले कभी नहीं बताया कि तुम वहां नहीं रहते? मैं तो सोचती थी कि तुम साल भर से वहीं रह रहे हो.’’
‘‘पूरे साल में कुछ ही दिन रहा हूं वहां. सच पूछो तो वह घर मेरा नहीं लगता मुझे.’’
‘‘नए पापा भी कुछ नहीं कहते? तुम्हें रोकते नहीं?’’
‘‘शुरूशुरू में कहते थे. मोनू भैया के साथ वाला कमरा भी मुझे दे दिया था. मगर कमरे का लालच नहीं मुझे. दादा दादी का पूरा घर है मेरे पास. सवाल अधिकार का नहीं है न. सवाल स्नेह और सम्मान का है. घर या कमरा वजह नहीं है मेरे वहां न रहने की. मैं वहां रहता हूं तो मुझे लगातार ऐसा महसूस होता रहता है कि मोनू मेरी मां का सम्मान नहीं करता. यह मुझे कचोटता है. शायद मेरा रिश्ता ही ऐसा है... तुम यह भी कह सकती हो कि मैं छोटे दिल का मालिक हूं. हो सकता है कुछ बातों को पचा