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आशुतोष दुनियादारी का आदमी था. कुछ दिनों तक उस ने अभिषेक को कोलकाता में रोक कर रखा और उसे खर्चे के पैसे भेजता रहा. जैसे ही शीतल मायके में अपनी कोचिंग क्लासेज पूरी कर के ससुराल में आई तो वह जल्दी ही अभिषेक के पास कोलकाता जाने का सपना देखने लगी.

मगर ससुराल वालों ने तरकीब से उसे मना कर उस का बायोडाटा महिला महाविद्यालय में लगवा दिया. वहां फिजिक्स लैक्चरर की पोस्ट खाली थी. शीतल की योग्यता और अनुभव के आधार पर उस का चयन भी हो गया. अब तो शीतल को नौकरी की बेड़ी पड़ गई. कोचिंग क्लासेज के लिए आशुतोष ने नए मकान का ऊपर का कमरा खाली कर दिया. शीतल की कोचिंग क्लासेज रुड़की की तरह यहां भी बढि़या चल निकलीं. यह उस के पैरों में डाली गई दूसरी बेड़ी थी.

तब एक दिन शीतल की सासूमां ने बड़ी चालाकी से उस से कहा, ‘‘शीतल बिटिया, अब तो तेरा काम बढि़या चल निकला है. अब तो तु?ो कहीं और जाने की भी नहीं सोचनी चाहिए. मैं तो कहती हूं अभिषेक को भी यहीं बुला ले. तू यहां वह वहां. अकेलापन तो तु?ो काटता ही होगा.’’ सासूमां की बात ने शीतल के मन पर गहरा असर छोड़ा. वह भी सोचने लगी पता नहीं कोलकाता में ऐसी जौब मिले या नहीं. अभिषेक वहां की जौब छोड़ने को तैयार हो या नहीं.

शीतल ने जब इस संबंध में अभिषेक से बात की तो वह तुरंत घर वापस आने के लिए तैयार हो गया. इस तरह शीतल के ससुराल वालों की युक्ति काम कर गई. अभिषेक की घर वापसी हो गई. यहां ऐसी कोई बड़ी कंपनी या फर्म नहीं थी जो अभिषेक को इंजीनियरिंग का काम दे सकती. शीतल भी अब अभिषेक को अपने से दूर नहीं भेजना चाहती थी और सच बात तो यह थी अभिषेक खुद बाहर नहीं जाना चाहता था. वह जानता था जिस इंजीनियरिंग की डिगरी का ठुनठुना वह लिए बैठा है, वह रद्दी के टुकड़े से ज्यादा कुछ नहीं.

अपने शहर में अपनी पत्नी से छोटी नौकरी करना वह अपनी तौहीन सम?ाता था. आखिरकार वह आशुतोष के काम में ही हाथ बंटाने लगा. लेकिन महीने 2 महीने गुजरने पर भी आशुतोष ने उस की हथेली पर एक धेला तक नहीं रखा. ऐसा कब तक चलता.

एक दिन जब अभिषेक ने इस बारे में अपने पापा से कहा, ‘‘पापा मैं कब तक आप की दुकान पर नौकरों की तरह काम करता रहूंगा? आखिर उस दुकान पर मेरा भी तो कोई हक बनता है.’’ पापा ने अपना पल्ला ?ाड़ते हुए मजबूरी जता दी, ‘‘बेटा, तू तो जनता ही है कि मैं आशुतोष के सामने अपना मुंह नहीं खोलता. दुकान का

कोई हिसाबकिताब भी मेरे पास नहीं, सब आशुतोष ही देखता है. मैं तो पहले भी चूडि़यां पहनाने का काम करता था और आज भी. आशुतोष कब मालिक बन बैठा, मु?ो पता ही नहीं चला. बस इस के बदले आशुतोष मेरी और तेरी मां की 2 रोटी में कोई कमी नहीं रखता. बुढ़ापे में उस के सामने मुंह खोलूं तो शायद चैन से मिलने वाली रोटी भी छिन जाए.’’

‘‘तो पापा मैं क्या करूं? कानूनी लड़ाई लड़ूं?’’

‘‘बेटा, तू पढ़ालिखा है, अपने भाई से बैठ कर बात कर. सलाह देता हूं कानूनी लड़ाई के पचड़े में मत पड़ना. जिंदगीभर तारीख पर तारीख ही लगती रहेगी. छोटे शहर के वकील आपस में मिले होते हैं, फैसला होने नहीं देंगे और हर तारीख पर फीस वसूलेंगे. भाई से संबंध खराब होंगे वे अलग.’’ पापा की बात मान कर अभिषेक ने आशुतोष से बात की, ‘‘भैया, मैं दुकान पर आप का हाथ बंटाता हूं.’’

‘‘तो क्या हुआ? साफसाफ बोल.’’

‘‘तो भैया मु?ो भी कुछ…’’

‘‘देख अभिषेक, हम ने तेरी शादी का पूरा खर्च उठाया.’’

‘‘हां.’’

‘‘तेरी घर वाली की नौकरी लगवाई.’’

‘‘हां.’’

‘‘शीतल की कोचिंग क्लासेज के लिए ऊपर का बड़ा कमरा खाली कर दिया और तुम्हें रहने के लिए 2 कमरे भी दिए.’’

‘‘हां.’’

‘‘ये नए मकान के सब कमरे किस ने बनवाए?’’

‘‘आप ने भैया.’’

‘‘कोलकाता में तेरी नौकरी छूटने की बात छिपा कर रखी और तेरा खर्चा उठाता रहा, यह सब किस ने किया?’’

‘‘आप ने.’’

‘‘अभिषेक तु?ो शर्म आनी चाहिए. मैं ने तेरे लिए इतना कुछ किया, अब दुकान पर जरा सा सहयोग क्या करने लगा, अपना हिस्सा मांगने पर उतर आया.’’

‘‘लेकिन भैया खर्चा तो मेरा भी है.’’

‘‘अरे शीतल की आमदनी देख कितनी

है? नौकरी भी करती है और कितनी ट्यूशन पढ़ाती है.’’

‘‘लेकिन भैया वह तो उस की आमदनी है. आप क्या चाहते हो, मैं अपनी औरत के सामने हाथ फैलाऊं?’’ तब आशुतोष ने बात खत्म करते हुए कहा, ‘‘तो अभिषेक एक काम कर. दुकान तो देख मेरी है. नया मकान भी मेरा है. तू कोई और कामधंधा ढूंढ़ ले और ठिकाना भी. पुराना मकान जो खंडहर हो चुका है उस में तेरा हिस्सा है, उस में जा कर रह ले. मेरा पीछा छोड़.’’

 

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