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वहीं रश्मि भी एक मध्यवर्गीय परिवार से थी और बनारस में ही उस के पिता बैंक में कार्यरत थे. उस के परिवार में एक प्राइमरी स्कूल में शिक्षिका मां के अलावा एक बहन और थी जो अभी कालेज के प्रथम वर्ष में थी. बीए कंप्लीट होते ही दोनों ने अर्थशास्त्र विषय में स्नातकोत्तर में प्रवेश लिया तो एक ही कालेज में होने के कारण दोनों का प्यार भी परवान चढ़ने लगा. अकसर दोनों कालेज के किसी पेड़ की छांव तले सारी दुनिया से बेखबर एकदूसरे की बांहों में बांहें डाले नजर आते. रश्मि अनुराग की फेमनिज्म विचारधारा पर मोहित थी तो अनुराग उस की सरलता, स्पष्टवादिता और बुधिमत्ता का कायल था धीरेधीरे दोनों ही एकदूसरे के पूरक बन गए थे.

एक बार 2 दिन तक जब रश्मि कालेज नहीं आ पाई तो दिन में न जाने कितनी बार अनुराग के उस के पास कौल और व्हाट्सऐप पर मैसेज आ गए. तीसरे दिन जब लंच में दोनों कैंटीन में चाय पी रहे थे तो अचानक अनुराग ने उस का हाथ पकड़ लिया और उस की आंखों में आंखें डाल कर बोला, ‘‘रेणु जिस दिन तुम कालेज नहीं आती हो तो लगता है पूरा कालेज ही सूना है…’’

‘‘अच्छाजी इतने बड़े कालेज में क्या मैं अकेली ही पढ़ती हूं… बातें बनाना तो कोई तुम से सीखे,’’ रश्मि ने अपनेआप पर इठलाते हए कहा. समय पंख लगा कर उड़ रहा था. स्नातकोत्तर करते ही दोनों ने एकसाथ बैंक की परीक्षा दी और आश्चर्यजनक रूप से प्रथम प्रयास में ही रश्मि का 2 बैंकों में चयन हो गया पर अनुराग अभी भी तैयारी कर रहा था. यों तो अनुराग उसे बहुत प्यार करता था उस के साथ जीनेमरने और जिंदगीभर साथ निभाने का वादा भी करता, पैरों पर खड़े हो जाने के बाद अंतर्जातीय होते हुए भी दोनों ने अपनेअपने घर में शादी की बात करने का भी प्रौमिस किया पर अपनी सफलता पर अनुराग उसे खुश से अधिक कुंठित सा लगा. शायद अपनी विफलता के कारण वह रश्मि की सफलता को पचा नहीं पा रहा था पर रश्मि ने इसे सिर्फ अपने मन का बहम और असफलता की स्वाभाविक प्रातिक्रिया सम  झा और उसे एक बार फिर से पूरी मेहनत से प्रयास करने के लिए प्रोत्साहित किया.

अनुराग के प्रयास रंग लाए और अगली बार उसे भी सफलता प्राप्त हो गई. दोनों की पोस्टिंग भी मुंबई में ही हो गई जिस से दोनों ही अपने भविष्य को लेकर बहुत उत्साहित थे.चूंकि अब दोनों आत्मनिर्भर हो गए थे तो दोनों के परिवार वाले विवाह करने पर भी जोर दे रहे थे. अनुराग के परिवार वाले उदार विचारधारा के थे सो वे सहज रूप से एक कायस्थ परिवार में ब्राह्मण बहू लाने को तैयार हो गए. उन का सोचना था कि कमाऊ बहू आ रही है तो अभी तक आर्थिक विपन्नता का दंश   झेलते आए परिवार के सदस्यों को कुछ राहत तो मिलेगी दूसरे बेटी की शादी में भी रुपएपैसे की कोई कमी नहीं रहेगी परंतु कट्टर ब्राह्मणवादी विचारधारा के रश्मि के पिता इस के लिए कतई तैयार नहीं थे.

हां, मां वीना अवश्य उदारवादी और यथार्थ विचारधारा की थीं. उन का मानना था कि यदि समाज से दहेज जैसी कुप्रथा को समाप्त करना है तो अंतर्जातीय विवाह ही एकमात्र विकल्प है. अत: एक दिन उचित अवसर तलाश कर उन्होंने पति से कहा, ‘‘देखोजी अपने समाज में तो कमाऊ लड़कों के रेट बहुत ज्यादा हैं. पहले तो अपनी आत्मनिर्भर बेटी के लिए हम इतना रेट क्यों दें. आखिर हम ने भी तो अपनी बेटी को आत्मनिर्भर बनाने में उतना ही पैसा और मेहनत लगाई है जितनी उन्होंने अपने लड़के के लिए, दूसरे ऐसे बिकाऊ लड़के के साथ हमारी बेटी आजीवन खुश भी रहेगी इस बात की भी क्या गारंटी है…’’

‘‘तो गैर जाति और अपने से निम्न कुल में बेटी को ब्याह कर अपना ही धर्म भ्रष्ट कर लें हम यही कहना चाहती हो न तुम,’’ पिताजी ने कुछ आक्रोश से कहा. ‘‘जी कहां का धर्म और जाति, आप भूल गए अपनी उस इकलौती बहन को जिस का आप ने देखभाल कर अपनी ही जाति, कुल और गोत्र में न केवल विवाह किया था वरना अपनी सामर्थ्य से बढ़ कर दानदहेज भी दिया था परंतु फिर भी उस की ससुराल वालों की मांगें कभी कम ही नहीं हुईं. यही नहीं ससुराल वालों ने उन्हें अपने तानों और अनुचित व्यवहार से इस कदर आजीवन आहत किया था कि वे ताउम्र घुटती रहीं और एक दिन ऐसे ही कलह में आए हार्टअटैक ने उन की जान ही ले ली. फिर भी आप अपनी बेटी का विवाह अपनी जाति, कुल में ही करने पर अड़े हैं? मु  झे तो रश्मि की पसंद में कोई बुराई नजर नहीं आती… योग्यता और गुणों के समक्ष जाति कोई माने नहीं रखती,’’ मां ने अपना पक्ष रखते हुए कहा.

‘‘इस बात की क्या गारंटी है कि अनुराग के साथ उस का जीवन सुखमय ही होगा.’’

‘‘देखो शादी कभी जाति और धर्म से सफल नहीं होती, उस की सफलता तो पतिपत्नी के परस्पर त्याग, समर्पण, सहयोग और सम  झदारी पर निर्भर करती है. कम से कम हमारी बेटी की पसंद का तो है अनुराग, फिर कोई दानदहेज का लफड़ा नहीं. अब दांपत्य जीवन को सुखमय बनाना तो उन दोनों पर निर्भर है,’’ मां ने पिताजी को अपने तर्कों से लगभग निरुत्तर सा कर दिया.

2 वर्ष लंबी जद्दोजहद के बाद मां के तर्कों की जीत हुई और एक दिन सादे से समारोह में रश्मि अनुराग की दुलहन बन गई. विवाह के बाद दोनों खुशी के कारण आसमान में उड़ रहे थे. हनीमून के लिए उन्होंने इंडोनेशिया के बाली को चुना. बाली द्वीप में चावल के हरेभरे खेत, अप्रतिम कलात्मक और प्राकृतिक सौंदर्य को देख कर रश्मि निहाल हो गई. फैशनेबल कपड़े धारण किए आकंठ परस्पर प्रेमरस में डूबे, इस नवयुगल की खूबसूरती देखते ही बनती थी. देखतेदेखते कब हनीमून के 10 दिन बीत गए दोनों को पता ही नहीं चला.

वापसी में पैकिंग करते समय रश्मि बोली, ‘‘अनुराग वे लोग बड़े खुशहाल होते हैं जिन के प्यार को शादी की मंजिल मिलती है.’’ ‘‘और हम उन प्रेमियों में से एक हैं,’’ कहते हुए अनुराग ने उसे अपने बाहुपाश में आबद्ध कर लिया.

मुंबई आ कर दोनों ने अपनाअपना बैंक जौइन कर लिया. अकसर नवदंपतियों के प्रेम को जब जीवन की सचाइयां अपनी गिरफ्त में लेने लगती हैं, जीवन जब कल्पनाओं से परे यथार्थ के धरातल पर अवतरित होने लगता है तो प्यार हवा हो जाता है और प्यार की जगह तकरार और तनाव लेने लगता है सो लगभग 8-10 महीने बाद ही उन दोनों के बीच भी घर की छोटीमोटी समस्याएं अब समयसमय पर सिर उठाने लगी थीं. प्रेमरस में डूबे रहने वाले नवयुगल के बीच अब यदाकदा बहस, ताना, आरोपप्रत्यारोप ने भी अपनी पैठ बनानी प्रारंभ कर दी थी.

ऐसे ही एक दिन जब रश्मि शाम को बैंक से आ कर चाय बना रही थी तभी खुशी से दोहरे होते हुए अनुराग ने प्रवेश किया, ‘‘लाओलाओ जल्दी से चाय पिलाओ उस के बाद मैं तुम्हें एक गुड न्यूज दूंगा.’’

‘‘लो चाय तो बन ही गई अब बताओ क्या गुड न्यूज है?’’ रश्मि अपना और अनुराग का चाय का कप ले कर डाइनिंग टेबल पर अनुराग के सामने वाली कुरसी पर बैठ गई.

‘‘अगले हफ्ते मां और गुडि़या मुंबई आ रही हैं.’’

‘‘अरे वाह यह तो बड़े गजब की न्यूज है. पहली बार हमारे घर कोई आ रहा है,’’ रश्मि ने उत्साहपूर्वक कहा.

‘‘रेषु वे पहली बार अपने घर आ रही हैं.

मैं चाहता हूं कि हम उन का जम कर स्वागतसत्कार करें.’’

‘‘हांहां क्यों नहीं, मैं भी तो शादी के बाद पहली बार ही मिलूंगी उन दोनों से… हम उन्हें पूरा मुंबई घुमाएंगे… बहुत मजा आएगा न,’’ रश्मि भी खुश होते हुए बोली.

‘‘पर मुझे यह सम  झ नहीं आ रहा कि हम कैसे मैनेज करेंगे… तुम और मैं दोनों ही तो सुबह जा कर शाम को आ पाते हैं… ऐसा करना उन दिनों तुम बैंक से 1 सप्ताह की छुट्टी ले लेना.’’

‘‘छुट्टी क्यों लूंगी… ऐसे अगर किसी के भी आने पर छुट्टी लूंगी तो आफत मुसीबत और बीमारीहारी में क्या करूंगी… गुडि़या और मम्मीजी ही तो आ रही हैं… उन्हें भी पता है कि हम दोनों जौब में हैं… घर में हर काम के लिए मेड है और सुखसुविधा का सारा सामान उपलब्ध है आराम से रहें… औफिस से आने के बाद और शनिवाररविवार को तो हम उन के साथ ही रहेंगे न,’’ रश्मि ने अनुराग की बात काटते हुए कहा.

यह सुन कर अनुराग एकदम भनभना गया और बोला, ‘‘बीमारीहारी जब होगी तब देखा जाएगा. मु  झे नहीं अच्छा लगता कि वे दोनों यहां अकेली बोर हों और हम दोनों औफिस में रहें… क्या सोचेंगी दोनों…’’

‘‘अनुराग इस में सोचने जैसा कुछ भी नहीं है… तुम कुछ ज्यादा ही सोच रहे हो और फिर यदि तुम्हें इतना ही लग रहा है तो तुम ले लो छुट्टी और अपनी मम्मी और बहन को कंपनी दो किस ने मना किया है,’’ रश्मि ने कुछ तैश से कहा.इतना सुनते ही अनुराग का पारा एकदम हाई हो गया और वह गुस्से में पैर पटकते हुए बोला, ‘‘बहू का रहना जरूरी होता है इसलिए मेरे छुट्टी लेने का कोई मतलब ही नहीं है.’’

सदैव स्त्रीपुरुष समानता और महिला सशक्तीकरण की बात करने वाले अनुराग के मुंह से इस प्रकार की बातें सुनना उसे बहुत अजीब लगा. गोया महिला और पुरुष की नौकरी की महत्ता भी अलगअलग हो. अनुराग की जिस फेमनिज्म विचारधारा पर वह मोहित थी उस अनुराग के इन दकियानूसी विचारों को सुन कर उसे बहुत बड़ा धक्का लगा पर इस समय उस ने चुप रहना ही उचित सम  झा.

अगले हफ्ते अनुराग की मम्मी और छोटी बहन आ गईं. अनुराग की ही भांति वे भी रश्मि के बैंक चले जाने से कुछ नाखुश सी नजर आईं पर उस के मातापिता ने उसे अनुचित बात के लिए बेवजह   झुकना नहीं सिखाया था सो उस ने कोई चिंता नहीं की. हां, परिस्थितियों में संतुलन कायम करने के लिए शुक्रवार का अवकाश अवश्य ले लिया ताकि वह पूरे 3 दिन उन के साथ रह सके.

1 सप्ताह बाद जब उन के जाने का दिन पास आ गया तो रश्मि बोली, ‘‘अनु कल बाजार चलकर मम्मीजी और गुडि़या को कुछ अच्छा सा खरीदवा देते हैं.’’‘‘अरे यार बाजार जाने का तो मूड बिलकुल ही नहीं है. ऐसा करो तुम ने बाली से जो ड्रैस ली थी वह गुडि़या को दे दो और पिछले मंथ बर्थडे पर जो साड़ी ली थी वह मम्मी को दे दो. तुम बाद में दूसरी ले लेना,’’ अनुराग ने कहा.

‘‘अनुराग कैसी बात करते हो उन दोनों के लिए हम बाजार से उन की पसंद का ले आते हैं. मैं अपनी पसंद की ड्रैस और साड़ी क्यों दूं. मैं ने बड़े मन से अपने लिए खरीदी है… तुम्हें तो पता है कि मु  झे कितनी मुश्किल से कुछ पसंद आ पाता है.’’ ‘‘अरे तो उस में क्या परेशानी है? क्या वे लोग तुम्हारी पसंद के कपड़े नहीं पहन सकतीं? तुम दूसरी ले लेना,’’ अपनी बात का कोई असर न होते देख और सासूमां और ननद के सामने किसी प्रकार का कोई विवाद न हो यह सोच कर अगले दिन रश्मि भरे मन से साड़ी और ड्रैस निकाल लाई और पैर छू कर दोनों को दे दीं.

उसी प्रकार की कुछ छोटीमोटी तकरारों के बीच वक्त गुजर रहा था. इसी बीच एक दिन दोनों के घर में एक नन्हे मेहमान ने अपने आगमन की दस्तक दे दी. नन्हे सदस्य के आगमन की सूचना से उन दोनों के साथसाथ पूरे परिवार में भी खुशियों की बहार आ गई. अब उन दोनों का सारा समय भावी शिशु की बातों में ही बीतता. एक दिन बैडरूम में जब दोनों भावी शिशु के बारे में चर्चा कर रहे तो उसने अनुराग से कहा, ‘‘अनु मैं चाहती हूं कि एक प्यारी सी बेटी हो हमारे घर में और मैं उस का नाम रखूंगी ‘चाहत.’’’

‘‘नहीं यार मु  झे तो लगता है कि पहला बच्चा बेटा ही होना चाहिए पहला बेटा हो जाए फिर दूसरा कुछ भी हो टैंशन नहीं रहती मैं ने तो उस का नाम भी सोच लिया है ‘चिराग.’ ‘चिराग’ रखेंगे हम अपने बेटे का नाम,’’ अनुराग ने प्यार से रश्मि के पेट पर हाथ रखते हुए कहा.

रश्मि के लिए फेमनिस्ट अनुराग के द्वारा दिया गया यह दूसरा   झटका था और वह मन ही मन सोचने लगी किसी भी विचारधारा को 4 लोगों के बीच रखने और अपने घर में लागू करने में कितना अंतर होता है. अनुराग के जिन विचारों पर वह फिदा थी वे धीरेधीरे यथार्थ के धरातल पर हवा होते नजर आ रहे थे. गर्भ उस का, शरीर उस का, डिलिवरी की पीड़ा भी वही सहेगी पर नाम रखने के लिए उस की पूछ तक नहीं. यह कैसा फेमनिज्म है. 9 महीने बाद जब सिजेरियन डिलिवरी से उस ने एक फूल सी नाजुक बेटी को जन्म दिया तो लगा उस की बरसों की मुराद पूरी हो गई हो. रुई के नर्मसफेद गोले की मानिंद, कंजी नीली आंखें और नन्हे से गुलाबी हाथपैरों वाली अपनी ही प्रतिकृति को देख रश्मि की सारी पीड़ा का ही हरण हो गया. अपने सीने से लगा उस ने पहले उसे जीभर कर प्यार किया. बेटी के होने पर अनुराग और उस के परिवार वालों ने कोई खास खुशी व्यक्त नहीं की. हां, अनुराग ने इतना आदेश जरूर दिया कि रेषु बेबी का नाम मम्मी ने अक्षिता रखने को कहा है.’’

‘‘बेटी का नाम मम्मी क्यों रखेंगी, हम रखेंगे न. बेटी तो हमारी है,’’ रश्मि ने तिलमिला कर कहा.

‘‘तुम्हारी तो छोटीछोटी सी बातों को तूल देने की आदत सी हो गई है, जैसी तुम्हारी मरजी,’’ कह कर पैर पटकता हुआ अनुराग बाहर चला गया. उस के लाख न चाहते हुए भी बेटी का नाम अक्षिता ही रखा गया. वह एक बार फिर मन मसोस कर रह गई. बैंक में बराबर का कमाने पर भी घर के बड़ेबड़े निर्णयों को तो छोड़ो अक्षिता का स्कूल, घूमने का स्थान, घर में खरीदने वाले सामान, सैलरी को कहां कब कैसे खर्च करना है आदि में अनुराग अपनी ही मरजी चलाते.

रश्मि याद है कि उस की मम्मी सदा कहा करती थीं कि अपनी बेटी को आत्मनिर्भर बना कर ही मैं उस का विवाह करूंगी ताकि उसे जिंदगी में कभी किसी का मुंह न ताकना पड़े और अपने निर्णय वह स्वयं ले सके. वह अपनी मरजी से पहनओढ़ सके और उन्होंने वह किया भी पर अब उस की पसंद ही धोखा दे गई तो वे क्या करें. सोचतेसोचते उसे वह घटना याद आ गई जिस ने उस दिन उसे अंदर तक   झं  झोड़ दिया था और कई दिनों तक वह बस यही सोचती रही कि आखिर वह कमा किसलिए रही है.

उस दिन रश्मि अपनी एक औफिस सहकर्मी के साथ मुंबई में लगे सिल्क ऐक्सपो से कांजीवरम साड़ी खरीद कर लाई थी जिस की कीमत क्व10 हजार थी.

घर आ कर जब उस ने अनुराग को वह साड़ी दिखाई तो कीमत सुनते ही वह

उछल पड़ा, ‘‘क्व10 हजार की साड़ी… इतनी महंगी भी कोई साड़ी लेता है? इतनी महंगी साड़ी कहां पहनोगी जरा बताना तो?’’

‘‘अनु यह प्योर सिल्क है और यह महंगी ही होती है. मु  झे बहुत पसंद थी तो मैं ने ले ली.’’

उस दिन इसी बात को ले कर दोनों में अच्छीखासी बहस हुई जिस से इतने मन से लाई साड़ी आज भी बिना फालपीको के कवर्ड में पड़ी थी. उस दिन उसे पहली बार लगा कि सुबह से शाम तक वह खट किसलिए रही है जब अपने लिए एक साड़ी भी नहीं खरीद सकती.

अक्षिता जब स्कूल जाने लगी तो उस का काम बहुत बढ़ गया. एक दिन अपने अंतरंग क्षणों में वह बड़े प्यार से बोली, ‘‘अनुराग, मु  झे तुम्हारे सहयोग की दरकार है. अकेले अक्षिता और नौकरी दोनों को संभालने में खुद को असहाय पा रही हूं. शाम होतेहोते तो मु  झे लगता है मानो मेरा पूरा शरीर ही निचुड़ गया है.’’

‘‘मैं क्या करूं भई इस के लिए… अब मैं तुम्हारी क्या मदद कर सकता हूं और यदि ज्यादा परेशानी हो रही है तो नौकरी छोड़ दो.’’

समय धीरेधीरे बीत रहा था. अक्षिता अब किशोरावस्था में थी. 8वीं कक्षा में आ चुकी थी. घर और बैंक इन सब के बीच जैसे रश्मि का अस्तित्व ही गुम होता जा रहा था.उसे अपने लिए 1 मिनट की भी फुरसत नहीं थी यही नहीं कई बार तो अक्षिता से भी उस की बातचीत केवल रात्रि में ही हो पाती थी. शादी से पहले हमेशा टिपटौप रहने वाली रश्मि अब किसी तरह उलटेसीधे कपड़े पहन घर के कामों को येनकेन निबटा कर बैंक आती. घर आ कर अक्षिता को देखना और घरेलू कार्य निबटातेनिबटाते रोज 11 बज जाते.

यों तो उस ने घरेलू कार्यों के लिए मेड लगा रखी थी पर इस के बावजूद घर के अनेक ऐसे कार्य होते जो उसे ही करने होते. लाख कोशिशों के बाद भी वह वर्तमान परिस्थितियों के मध्य संतुलन नहीं बैठा पा रही थी. इसी बीच हुई 2 घटनाओं ने उसे एक ठोस निर्णय लेने पर मजबूर कर दिया. उस दिन अक्षिता के स्कूल में पेरैंट्स टीचर मीटिंग थी और रश्मि के बैंक में बहुत जरूरी मीटिंग जिसे वह किसी भी कीमत पर छोड़ नहीं सकती थी. जब रश्मि ने अनुराग से पीटीएम में जाने को कहा तो उन्होंने भी जरूरी मीटिंग का हवाला दिया और उस दिन अक्षिता की पीटीएम में कोई नहीं पहुंचा. उस दिन मीटिंग में जाने से पहले अनुराग से जम कर बहस भी हुई और इस चक्कर में वह अपना टिफिन भी टेबल पर रखा ही छोड़ गई. शाम को जैसे ही मीटिंग खत्म कर के वह अपनी टेबल पर आई तो अचानक से चक्कर खा कर गिर पड़ी. उस के सहकर्मियों ने जैसेतैसे उसे संभाला और पानी के छींटे दे कर होश में लाए. किसी तरह वह घर आई.

अगले दिन अवकाश ले कर अक्षिता के स्कूल में उस की टीचर से मिली तो उनकी बातें सुन कर उस के होश उड़ गए, ‘‘अक्षिता इज फेल्ड इन मैथ्स ऐंड हार्डली पास्ड इन साइंस ऐंड संस्कृत. मेम अक्षिता दिनबदिन पढ़ाई में पिछड़ रही है. आप सम  झ सकती हैं कि नैक्स्ट ईयर नाइंथ क्लास है और फिर टैंथ. आई नो बोथ औफ यू आर वर्किंग बट टीनएज बच्चों को यदि मातापिता की तरफ से इमोशनल सपोर्ट नहीं मिलती तो वे पढ़ाई में पिछड़ने के साथसाथ कई बार रास्ता भी भटकने लगते हैं. आजकल अक्षिता का ध्यान पढ़ाई पर बिलकुल नहीं है… यू हैव टू पे अटैंशन औन हर.’’

‘‘जी,’’ कह कर रश्मि घर वापस आ गई क्योंकि जो बात आज अक्षिता की टीचर ने कही उसे तो वह कब से महसूस कर रही थी क्योंकि आजकल अक्षिता अकसर अपने दोस्तों से फोन पर लगी रहती थी और अकसर आईने के सामने खड़े हो कर अपने रूपसौंदर्य को निखारती रहती. चूंकि आज अवकाश लिया था सो वह अपनी डाक्टर दोस्त वर्षा के क्लीनिक जा पहुंची. उसे देखते ही वर्षा बोली, ‘‘अरे आज बैंक खुद चल कर हमारे क्लीनिक कैसे आ गया?’’

 

 

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