मगर मेरे दिमाग में किशोर की कही एक भी बात नहीं घुस रही थी. मैं तो बस इतना जान रही थी कि किशोर राजन की तरह नहीं हैं. इसलिए उन की हर छोटी बात पर भी मैं झल्ला उठती या उलाहने देने लगती और वे बेचारे चुपचाप मेरी झिड़की सुन लेते, क्योंकि वे जानते थे कि मैं लड़ाई के रास्ते ढूंढ़ रही हूं और वे घर में कलह नहीं चाहते थे. शाम को भी जब वे थकेहारे औफिस से घर आते, तो चुप ही रहते. जानबूझ कर खुद को किसी न किसी काम में उलझाए रखते ताकि किसी बात पर मुझ से बहस न हो जाए.
आज फिर मृदुला ने मुझे यह कह कर शौक दे दिया कि शादी की सालगिरह पर राजन ने उसे हीरे जड़ी अंगूठी दी. फिर बताने लगी कि वे कहांकहां घूमने गए, क्याक्या खरीदा, वगैरहवगैरह, जिसे सुनसुन कर किशोर के प्रति मेरा गुस्सा और बढ़ने लगा.
‘‘मैं तो मना कर रही थी पर ये हैं कि शौपिंग पर शौपिंग करवाए जा रहे हैं और जानती है मंजरी, राजन तो कह रहे थे कि अगर तुम और जीजाजी भी हमारे साथ गोवा आते तो और मजा आता. सच में, गोवा बहुत ही सुंदर जगह है. राजन ने तो मुझे जबरन छोटेछोटे कपड़े कैपरी, जींस, टीशर्ट आदि भी खरीदवा दिए और कहा कि यही पहनूं. जब तक गोवा में रहे पहनने पड़े. क्या करती.’’
मृदुला कहे जा रही थी और मेरे सीने में धुकधुक कर आग जल रही थी.
‘‘अच्छा ठीक है मृदुला अब मैं फोन रखती हूं. खाना बनाना है न. किशोर औफिस से आते ही होंगे,’’ और बात न करने के खयाल से मैं बोली, तो वह फिर कहने लगी, ‘‘अरे, सुन न मंजरी, मैं तो बताना ही भूल गई. वे तुम्हारे जीजाजी अपनी पसंद से तुम्हारे लिए साड़ी खरीद लाए हैं. कह रहे थे नीला रंग, गोरी मंजरी पर खूब फबेगा. सही कह रहे थे. वैसे उन्होंने मेरे लिए भी उसी रंग की साड़ी खरीदी. कहने लगे कि भले तुम सांवली हो, पर मेरे लिए दुनिया की सब से खूबसूरत औरत हो. अच्छा, चल मैं किसी रोज आती हूं तुम्हारा उपहार ले कर.’’
समझ में नहीं आया कि मंजरी क्या बके जा रही है. लगा, बोलना कुछ और चाह रही थी, बोल कुछ और रही है.
‘‘ठीक है मृदुला,’’ कह कर मैं ने फोन रख दिया और बेमन से खाना बनाने लगी. न तो आज मेरा खाना बनाने का मन था और न ही कोई और काम करने का. मूड एकदम औफ हो गया था.
तभी किशोर का फोन आया. कहने लगे कि आज उन का औफिस में ही खाना है, तो मैं खा लूं उन की राह न देखूं. अच्छा है, वैसे भी मेरा खाना बनाने का मन नहीं था. अत: बच्चों को मैगी बना कर खिला दी और खुद टीवी खोल कर बैठ गई. लेकिन आज मुझे वह भी अच्छा नहीं लग रहा था. लगा, आज मृदुला की जगह मैं हो सकती थी. मगर मां ने ऐसा नहीं होने दिया.
याद है जब लड़के वाले मृदुला को देखने आने वाले थे तब मां ने मुझे पड़ोसी के घर भेज दिया ताकि पिछली बार की तरह इस बार भी लड़के वाले मुझे ही न पसंद कर लें. चूंकि मृदुला मुझ से 1 मिनट बड़ी है, इसलिए ब्याह भी पहले उस का ही हुआ था. मगर एक साधारण नैननक्श और सांवली लड़की को इतना अच्छा पति मिल सकता है, यह किसी ने नहीं सोचा था.
मुझे लगा था, जब मृदुला को इतना सुंदर राजकुमार जैसा पति मिल सकता है, तो
फिर मुझे क्यों नहीं, क्योंकि मैं तो उस से लाख गुना सुंदर हूं. लेकिन मेरा सपना तब ताश के पत्ते की तरह भरभरा कर बिखर गया, जब पहली बार मैं ने किशोर को देखा. जैसा नाम वैसा रूप. एकदम कालाकलूटा. लेकिन अब तो शादी हो चुकी थी.
याद है मुझे, मृदुला को देख कर महल्ले की औरतें कहती थीं कि मंजरी के ब्याह में तो कोई दिक्कत नहीं होगी, पर इस कलूटी को कौन पसंद करेगा? खान से निकले, हीरे और कोयले से लोग हमारी तुलना करते थे, जाहिर था मैं हीरा थी और वह कोयला.
जैसेजैसे हम बड़ी होती गईं, यह भावना भी मेरे अंदर पनपती गई कि मैं मृदुला से सुंदर हूं. मेरी बातों से वह आहत भी हो जाती कभीकभी, पर फिर सबकुछ भुला कर एक बड़ी बहन की तरह मुझे प्यार करने लगती.
एक बात थी, छलप्रपंच और ईर्ष्या नाम की चीज नहीं थी उस में. एकदम दिल की साफ थी वह. जहां मैं छोटीछोटी बातों का बतंगड़ बना कर मां को सुनाती, वहीं वह बड़ी बात भी मां से छिपा जाती ताकि उन्हें दुख न हो. शायद इसीलिए उसे इतना कुछ मिला जीवन में. शादी के बाद जहां वह जीवन के सब रस चख रही थी, वहीं मैं हर चीज के लिए तरस रही थी.
शुरूशुरू में तो किशोर का व्यवहार मुझे समझ नहीं आता, लेकिन धीरेधीरे समझ में आने लगा कि सिर्फ रूपरंग से ही नहीं, बल्कि चालव्यवहार से भी उदासीन इंसान हैं ये.
क्या यही मेरे हिस्से में लिखा था? कभी तो मन होता, मां से खूब लड़ूं. पूछूं कि क्यों, क्यों उन्होंने मेरे साथ ऐसा किया? क्या जांचपरख कर शादी नहीं कर सकते थे मेरी? जो मिला पकड़ा दिया? मांबाप हैं या दुश्मन? एक बार लड़ भी ली थी, उस बात पर. लेकिन मुझे समझाते हुए मां कहने लगीं कि लड़के का रूप नहीं गुण देखा जाता है मंजरी. जाने कौन सा बढि़या गुण दिख गया उन्हें किशोर में, जो मेरा हाथ पकड़ा दिया. यही सब बातें कहकह कर, सोचसोच कर कब तक और कितना कुढ़तीमरती मैं. सो उसी को अपना हिस्सा मान कर संतोष कर लिया.
हम मध्यवर्गीय समाज में एक बार जिस का हाथ पकड़ लिया, मरते दम तक निभाना पड़ता है, सो कोई चारा नहीं था, इसलिए मैं ने अपने ढीले मन को खूब कस कर बांध लिया
और बंद कर लिया उस संकीर्ण चारदीवारी में खुद को, क्योंकि अब बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं था. लेकिन बारबार मृदुला का सुखी वैवाहिक जीवन देख कर कुढ़न तो होती ही थी न. न चाहते हुए भी फिर वही सब बातें दिमाग में शोर मचाने लगतीं कि वह मुझ से ज्यादा सुखी क्यों है?
उस रोज सुबहसुबह ही मां का फोन आया. घबराते हुए बोलीं, ‘‘तुम्हारी मृदुला से कोई बात हुई है? फोन आया था उस का क्या?’’
‘‘नहीं तो मां, पर क्या हुआ, सब ठीक तो है?’’ मैं ने पूछा तो मां भर्राए कंठ से कहने लगीं, ‘‘कल से मैं मृदुला को फोन लगा रहीं, पर बंद ही आ रहा है.’’
‘‘अरे, तो जीजाजी को लगा लो.’’
‘‘वे भी फोन नहीं उठा रहे हैं.’’
‘‘हो सकता है फिर दोनों कहीं घूमने निकल गए होंगे. जाते तो रहते हैं हमेशा,’’ यह बात मैं ने ईर्ष्या से भर कर कही, ‘‘अच्छा आप चिंता मत करो, मैं देखती हूं फोन लगा कर.’’