कभीकभी मैं रोज के क्रम से ऊब कर कुछ मनोरंजन चाहती, छुट्टी वाले रोज राकेश को बच्चों के साथ कहीं पिकनिक पर चलने को कहती तो वे बगैर कुछ बोले विद्रूपता से हंस कर अकेले ही बाहर चले जाते. मैं उदासी से ऊब कर बच्चों से ही दिल बहला लेती.
इसी तरह दिन बीतते गए. पिंकी जब 3 साल की हो गई तो मैं ने उसे भी स्कूल में
डाल दिया. अब दोपहर का थोड़ा सा वक्त मुझे खाली मिल जाता था, पर मैं तब अपने पर ध्यान न दे कर बच्चों के कपड़े सीती, स्वैटर बुनती या फिर सो जाती.
शाम को बच्चे आते तो मैं फिर उन में रम जाती. गरम खाना बना कर देती. घर में मक्खन से घी बना कर पौष्टिक खाने का इंतजाम करती. उन्हें पढ़ाती और उस से वक्त बचता तो फटेउधड़े कपड़े ठीक करती.
अब तक मोबाइल भी चलाना सीख लिया था. मोबाइल पर बहनों, चचेरी बहनों, बूआ से खूब बातें करती क्योंकि वे सब या तो बच्चों की बातें करतीं या तीजत्योहार और पंडितों की. मुझे जैसी कसबाई लड़की को यही अच्छा लगता. पड़ोस में कोई भी खास संबंध नहीं बना क्योंकि हम लोग पिछड़ी जाति के माने जाते थे और पासपड़ोस के लोग ऊंची जातियों के थे जो घास नहीं डालते थे हमें.
राकेश रात को लौटते, थकेथके से, चुपचुप से. मैं समझती, काम की अधिकता इनसान को चुप रहना सिखा देती है. झटपट उन्हें गरम खाना परोस कर देती और एकाध बात का हांहूं में जवाब दे कर बिस्तर में घुस जाते. मैं जब तक सब कुछ समेट कर कमरे में आती, तब तक राकेश सो जाते.