शौपिंग लफ्ज का ईजाद और चलन कब और कैसे हुआ, मालूम नहीं, मगर आजकल इतना सामान्य व सहज हो गया है कि हम चाहे फुटपाथ पर सजे ठेलों पर चड्डीबनियान का मोलभाव करतेकरते पसीनापसीना हो जाएं या फिर फलसब्जी वाले से घंटों उलझ 2-4 रुपए कम कराने में लस्तपस्त, कहते हम उसे शौपिंग ही हैं, खरीदारी नहीं. सड़कों पर भटक, दुकानदारों से उलझ, धूलमिट्टी से सन, भीड़भाड़ में धक्कामुक्की खा कर जब हमें अक्ल आ ही गई तो हम ने औनलाइन बायर बनने की सच्ची वाली कसम खा ही ली और आननफानन ताबड़तोड़ और्डर कर डाले. अपनी देर आयद दुरुस्त आयद वाली सोच पर (काश, हम अपनी पीठ खुद थपथपा पाते.) हम फूले नहीं समाए (अब क्या कहें पहले से ही कितने फूले हुए हैं). फिर चैन से एक देशभक्ति के स्लोगन वाली चाय सिप करते हुए बेसब्री से और्डरों के आने का इंतजार करने लगे.

कुछ घडि़यां सुकून से घर की चारदीवारी में जो बिताईं तो पाया कि हम से पहले ही हमारे सभी पड़ोसी औनलाइन ग्राहक बन चुके हैं. कूरियर बौय का आना कुछ पोस्टमैनों की रोजाना वाली आमद की तरह था, जो अब गाहेबगाहे ही आया करते हैं और वे भी सरकारी चिट्ठियों के साथ. और तो और, कालोनी में औनलाइन ग्राहकों की गिनती का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता था कि कंपनियों की गाडि़यां भारी सामान से लदीं फर्राटे भरतीं घूमघूम कर घर बैठे सब के शौपिंग यानी खरीदारी वाले गम को अपने कंधों पर मुस्तैदी से उठा रही थीं. हम मुंगेरीलालजी के नक्शेकदम चल कर के सुहानेहसीन सपनों में खो गए. सपना कि पैट्रोल के खर्च पर बचत. सपना कि अब ज्यादा रिलैक्स रह कर उम्दा काम करेंगे और औफिस में बौस को खुश कर देंगे… प्रोमोशन के चांसेज. सपना कि खरीदारी के दौरान सड़कों पर मुंह बाए खुले चैंबरों में असमय जान गंवाने से बचेंगे.

कहां घंटों ड्राइव कर के मौल्स, दुकानों तक पहुंचने की जद्दोजेहद. वह जाम में फंसना. कीचड़ का छपाका राहगीरों पर उड़ा कर (दाग अच्छे हैं. पर केवल क्यूट सी एड में.) खुद उन की गालियों की बौछार झेलना. पर यहां तो सिर मुंडाते ही ओले पड़ने वाली बात हो गई. हमारा पहला और्डर उन की 3 खूबसूरत साडि़यों का था. लेकिन तोलमाप डौट.कौम की चकाचक मौडलों पर झकास सजी साडि़यां छेदों से भरी थीं. रंग यहांवहां से उड़ा था. बिटिया के 4 जोड़ी सैंडलों का साइज (हालांकि हम ने अच्छी तरह देख कर साइज और्डर किया था) उन्हीं नंबरों के साथ छोटा था. हमारे लख्तेजिगर के सल्लू स्टाइल बूट्स के दोनों पैरों का लैदर अलगअलग रंग का था. डेढ़ घंटे का वक्त बरबाद कर जो और्डर हम ने क्लिक किया था उसे वापस लौटाने के लिए हमें बस 15 किलोमीटर दूर जाना था.

अभी टूटे सपनों का जनाजा उठ भी न पाया था कि जल्द ही दोबारा हमारी जिंदगी गच्चे खाने लगी. कनैक्टिविटी प्रौब्लम से दोचार होते ही हमें अपनी नानी याद आ गईं. मुई इंटरनैट कनैक्टिविटी के लपेटे में एक ही सामान के 2-2 और्डर जो क्लिक हो गए. हम ने सिर पीट लिया. अभी तो पहले ही सामान की वापसी के लिए मर्केंडाइज रिटर्निंग वालों के यहां चक्कर लगालगा कर वास्कोडिगामा हो रहे थे और… और अब जब तक दोबारा कनैक्टिविटी आए तब तक धाड़धाड़ करते कलेजे के साथ हम सारा कामधाम छोड़छाड़ डबल और्डर कैंसिल करने के लिए मौनीटर के सामने बिसूरते बैठे रहने को मजबूर थे. हमारी दुखभरी दास्तान इतने पर ही खत्म हो जाती, ऐसा भला हमारे नसीब में कहां था? एक मध्यवर्गीय भारतीय होने का श्राप हमारे सिर पर बेताल का ताल ठोंकता ही रहता.

अपने बौस को उन की शदी की सालगिरह पर तोहफे में देने के लिए खरीदा माइक्रोवेव एक छोटी सी शिपिंग मिस्टेक की वजह से किसी दूसरे के घर पहुंच गया था और बदले में उन साहब का पैकेजिंग मिस्टेक के कारण टूटा डिनर सैट सामने पड़ा हमारा मुंह चिढ़ा रहा था. माइकल शूमाकर और सेबैस्टियन वेट्टल भैया के बाद हम एक नया रिकौर्ड बनाने जा रहे हैं, क्योंकि फौर्मूला वन की रेस में दौड़ना हमारे शहर की गलियों में कार दौड़ाने से इतर नहीं है. हमारे पिद्दी से कलेजे में सोतेजागते बस अपनी शौपिंग आइटम्स और और्डर्स को ले कर धुकधुकी बनी रहती. न जाने कब क्या हो जाए? हम ने पूरे परिवार के साथ बैठ कर तय किया कि चाहे जो हो जाए अब गिनीचुनी अच्छी कंपनियों को ही और्डर करेेंगे और साथ ही सब को घुड़काया भी कि घंटों बैस्ट औफर के चक्कर में इंटरनैट और बिजली के बिल से घर की बजटरूपी नैया को न डुबोएं.

इस सब के बावजूद हालांकि रबड़पैंसिल, जूतों के तस्मे, दियासलाई, ताजा पनीर, नीबू, मिर्ची वगैरह जैसी रोजमर्रा की डिमांड में चक्करघिन्नी हो गलीसड़कों पर फाकाकशी करनी ही पड़ती थी. कभी किसी आइटम की डबल बिलिंग का लफड़ा तो कभी दोगुने शिपिंग चार्ज का थपेड़ा. कुछ ही महीने बीते थे कि एक दिन अचानक हम ने पाया कि हम अस्पताल के बिछौने पर बड़े सुकून से आराम फरमा रहे हैं (और भला सुकून की नींद हमें कहां नसीब होती?). हम वापस आंखें खोल कर इस दुनिया से रूबरू नहीं होना चाहते थे. फिर… बस… हम श्रीमतीजी की जबानी अपने टूटे हुए दिल की कहानी सुनते रहे…

हमारी मिजाजपुर्सी को पहुंची किन्हीं मुहतरमा को वे बता रही थीं कि कैसे एक स्पाईवेयर ने हमारे क्रैडिट कार्ड पर खुफिया डाका डाल कर हमारे बचेखुचे बैंक बैलेंस को लूट लिया. हम ने हारे जुआरी की तरह एक लंबी सांस (हालांकि औक्सीजन मास्क लगा हुआ था हमें) खींच कर फिर कसम खाई कि अब कभी औनलाइन शौपिंग के लिए क्लिक नहीं करेंगे. आखिरकार हम भी एक जागे हुए ग्राहक थे और ग्राहक सेल में ठोंके गए मुकदमे में अपनी जीत का हमें पूरा भरोसा था. (भरोसा करना हमारी पुरानी मजबूरी थी). हम नेताओं, पुजारियों, मुल्लाओं, बीमा कंपनियों सब पर भरोसा करते चले आ रहे हैं. एक बार फिर गृहस्थी के जंजाल और संसार की मोहमाया में जकड़े हम हरभजन भैया के ठेले से 500 ग्राम टमाटरों पर 1 रुपया कम करा कर अपने पुराने दिनों में (सहीसलामत न सही) लाइफलाइन बचा लौट आए थे.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...