वेदिकाने उठ कर दीवारों की सरसराहट का मकसद जानने की कोशिश की, फिर धीरे से दरवाजा खोल कर बाहर ?ांका. वहां कोई नहीं था. तभी हवा में तैरती एक तरंग उस का नाम ले कर आई तो वेदिका ने कान लगा कर सुनने की कोशिश की.
मम्मीजी के कमरे से जेठजी की आवाज आ रही थी, ‘‘अब उस का यहां क्या काम है? विदित चला गया...अब उस का यहां रहने का कोई हक नहीं बनता.’’
‘‘तो क्या करें घर से निकाल दें? उस के मांबाप ने तो विदित के जाने पर अफसोस करने आना भी जरूरी नहीं सम?ा...अब उसे उठा कर सड़क पर तो फेंक नहीं सकते,’’ यह मम्मीजी का स्वर था.
‘‘पर मम्मीजी जब उस के मातापिता तक उस से संबंध रखने को तैयार नहीं हैं, तो हम भला क्यों इस पचड़े में पड़ें? आज उसे और कल को उस के बच्चे को भी हम कब तक खिलाएंगे? हमारा खाएगी और कल को हम से ही हिस्सा मांगने खड़ी हो जाएगी. क्या हक बनता है उस का? मैं तो कहती हूं कि उसे अभी घर से निकाल दो. जहां जाना जाए. चाहे मांबाप के घर या और कहीं...यह तो विदित से भाग कर शादी करने से पहले सोचना था,’’ यह भाभी की आवाज थी. वही भाभी जो उस की और विदित की शादी से नाखुश हो कर भी विदित के साथ मुंह में मिस्री घोल कर बतियाती थीं. मगर आज मिस्री थूक कर दिल में इकट्ठा किया जहर को जबान पर ले आई थीं.
‘‘बस करो...तुम लोग बस एकतरफा सोचते और बोलते हो. ऐसे ही घर से निकाल दोगे तो जाएगी कहां? अभी विदित को गए महीना भी नहीं हुआ. थोड़ा धीरज धरो, फिर सोचेंगे कि क्या करना है?’’ बाबूजी ने कहा.