शाम को 7 बजते ही दफ्तर के सारे मुलाजिम बाहर की ओर चल पड़े. अभिनव भी अपनी सीट से उठा और ओवरसीयर के कमरे के पास जा कर खड़ा हो गया.

‘‘क्या हुआ अभिनव तुम गए नहीं? क्या आज भी ओवरटाइम का इरादा है?’’

‘‘हां बड़े साहब, आप तो जानते ही हैं विद्या की ट्यूशन की फीस देनी है फिर उन की किताबे, कापियों का खर्च, पूरे 15-20 हजार का खर्च हर महीने होता है. इतनी सी तनख्वाह में कैसे गुजारा हो सकता है, ओवरटाइम नहीं करूंगा तो भूखे मरना पड़ेगा.’’

जवाब में ओवरसीयर बाबू मुसकरा दिए, ‘‘यह तो हरजाना है अभिनव बाबू एक पढ़ीलिखी लड़की से शादी रचाने का और उस पर उसे और आगे पढ़ाने का.’’

‘‘हरजाना नहीं है बाबू, यह मेरा फर्ज है. विद्याजी में हुनर है, बुद्धि है, प्रतिभा है. मैं तो सिर्फ एक जरीयामात्र हूं उन के ज्ञान को उभार

कर लोगों तक लाने का और फिर जब वे जीवन में कुछ बन जाएंगी तो नाम तो मेरा भी ऊंचा

होगा न.’’

‘‘हां वह तो है आने वाले कल को सजाने के लिए जो तुम अपना आज दांव पर लगा रहे

हो उस की मिसाल बड़ी मुश्किल से ही मिलेगी मगर ऐसे सपने भी नहीं देखने चाहिए जो तुम

से तुम्हारी नींद ही चुरा लें. कभीकभी इंसान को अपने बारे में भी सोचना चाहिए जो तुम नहीं कर रहे.’’

‘‘मेरी सोच विद्याजी से शुरू हो कर वहीं पर खत्म हो जाती है सर, मुझे हर हाल मे विद्याजी को वहां तक पहुंचाना है जहां की वे हकदार हैं. शादी के बंधन ने उन्हें एक क्षण के लिए बांध जरूर दिया था मगर मेरे होते उन्हें अपनी मंजिल तक पहुंचने से कोई नहीं रोक सकता.’’

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