होली और धुलैंडी बीत गई थी, किंतु उस के जीवन में रंग नहीं भर पाई थी. कोरोनाकाल के बाद यह पहली होली थी जब लोग उत्लासखुशी के रंग से भरपूर थे. रोली को होली, धुलैंडी के रंग बेहद पसंद थे. बचपन से वह कालोनी में सहेलियों को ले कर धुलैंडी पर जम कर होली खेलती थी. घर आतेआते उसे शाम के 4 तो बज ही जाते थे. भूख लगती तो दौड़ कर घर आ जाती. अपनी मां अरुणा से 1-2 गु ि झया खा कर फिर भाग जाती. हाथों में रंग इतना गहरा होता कि अरुणा ही उसे अपने हाथों से खिलाती, पानी पिलाती, मुंह पोंछती और प्यारभरी डांट से जल्दी आने को कहती.
आज वही रोली अपने कमरे में चुपचाप पलंग पर करवटें लिए लेटी थी. अरुणा बारबार उसे देख कर वापस आ जाती. फिर बाहर बरामदे में पड़ी कुरसी पर बैठ जाती है. बचपन में रोली जितनी शरारती, चंचल थी बड़ी होने पर उतनी जिद्दी हो गई थी. अरुणा भी असहाय थी. रोली के बचपन को उस ने कभी मरने नहीं दिया था. उसी युवा रोली के सामने अरुणा कुछ नहीं कह पा रही है.
अरुणा जानती है रोली जिद्दी है लेकिन इतनी ज्यादा जिद्दी होगी यह नहीं जान पाई. अरुणा उसे पिछले 3 दिन से सम झाने की कोशिश कर रही है पर रोली नएनए तर्क दे कर उसे चुप करा देती है. अरुणा सम झ नहीं पा रही थी रोली के मन को कि वह आखिर चाहती क्या है? किसी लड़के से प्रेम होता तो अरुणा को जो उस की मां है उसे जरूर बताती. लेकिन ऐसा भी कुछ नहीं है. तो फिर क्यों वह शादी के लिए तैयार नहीं हो रही है?