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दीवारें  बन गई थीं. दिलों के भीतर बनी इन दीवारों के पीछे से घर का हर व्यक्ति एकदूसरे की हरकतों को देखता रहता था. सविता के दिल में दीवार की नींव तब पड़ी जब नवीन ने 1 साल पहले ही ब्याह कर आई अपनी पत्नी की सारी भारी-भारी साडि़यां, डैकोरेशन पीसेज, चांदी के बरतन सब उस को मना कर बहन की शादी में दे दिए थे. नवीन 2 बहनों का भाई था और अपनी जिम्मेदारियां संभालता था पर सविता की भावनाओं की कद्र उसने नहीं की. यह सारा सामान सविता चाहे इस्तेमाल नहीं करती थी पर मां-बाप की निशानी थी.

नवीन उठते तनाव को देख रहा था, पर वह चुप रहता था. वह मूक दर्शक था. पत्नी के व्यंग्य को तो बरदाश्त करता ही था, विवाहित और एक बची अविवाहित बहन की फरमाइशों को भी सुनता था. कभी-कभी मां फोन पर चिल्लाकर कहती, ‘‘अरे, तू कुछ बोलता क्यों नहीं?’’ तंग आ कर वह कहता, ‘‘क्या बोलूं, मम्मी आप लोग ही बोलने को काफी हैं.’’

सुबह 6 बजे से ही सविता की सास प्रमिला देवी को मैसेज नवीन के व्हाट्सऐप पर आने शुरू हो जाते. आज दफ्तर जाते समय 2 किलोग्राम आटा और 1 किलोग्राम चीनी देते जाना. तेरे पापा की दवाइयां खत्म हो गई हैं, शाम को लेते आना.

मगर वे अपनी बेटी रश्मि को कभी फोन नहीं लगाती थीं जो उन्हीं के साथ रहती थी. शायद उसी गुस्से से मैसेज देख लेने पर भी सविता करवट बदल कर फिर सो जाती थी. मम्मी के मैसेजों की टिनटिन आवाज से नींद नवीन की भी खुल जाती थी पर वह भी चुपचाप लेटा रहता था. वह सविता को भी उठने को नहीं कहता था.

उसके पापा नरेंद्रनाथ ने कभी चाय तक नहीं बनाई थी. जब से नवीन और सविता ने अलग रहना शुरू किया है उन्हें काम के लिए न जाने कितनी बार रसोई के चक्कर लगाने पड़ते हैं. प्रमिला 1 घंटा व्यायाम करने के बाद ही 1 प्याला चाय उन के सामने मेज पर रखती थीं. बेचारे चुपचाप उठा कर पीते. यह रोज की दिनचर्या जो थी, कहां तक बुरा मानते. नवीन व सविता ने सालभर यह देखा था या कहिए भुगता था. शादी के 10-15 दिन बाद घर की हालत कुछ ऐसी होती थी.

‘‘सवेरे-सवेरे उठ जाते हो, यह नहीं कि सब की तरह पड़े सोते रहो,’’ यह प्रमिला की आवाज होती थी.

‘‘क्या करूं, पुरानी आदत है, नींद जल्दी खुल जाती है और फिर 7 बजे उठा तो 9 बजे दफ्तर कैसे जा पाऊंगा,’’ कह कर नरेंद्रनाथ खाली प्याला पत्नी की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘‘1 प्याला और दे दो, आज कुछ ज्यादा ही थकावट लग रही है.’’

‘‘तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न?’’ प्रमिला आखिर पत्नी ही तो थीं.

‘‘ऐसी कोई बात नहीं, अब उम्र का तकाजा है, प्रमिला,’’ कह कर उन्होंने प्यार से पत्नी के कंधे को छू लिया.

उधर युवा सविता उठी और उतरी सलवारकमीज को फिर से लपेट कर ऐसे बाहर जाने लगी जैसे कोई शेरनी शिकार के लिए निकल रही हो. ‘‘सविता, सुनो,’’ नवीन ने कुछ कहना चाहा, पर वह बिना जवाब दिए ही तेजी से कमरे से बाहर निकल गई. शादी के सपने इतने जल्दी धुल जाएंगे, उसे उम्मीद नहीं थी.

रोज की तरह रसोई में जा कर वह काम में जुट गई. नाश्ते से निबटने के बाद खाने की तैयारी शुरू हो गई. नरेंद्रनाथ बाहर का खाना नहीं खाते हैं, इसलिए पहले उन का ही डब्बा तैयार कर के रख दिया गया. नवीन का दफ्तर पास ही है, इसलिए वह घर आ कर खा लेता है. अगर किसी वजह से घर न आ सके तो कैंटीन में ही खा लेता है.

‘‘अब तुम बोलो, क्वीन, तुम्हारे डब्बे में क्या रख दूं?’’ सविता ने अपनी ननद रश्मि से पूछा.

‘‘कुछ भी रख दो, भाभी देर हो गई है. नहीं बना हो तो बिना लिए ही चली जाऊंगी और हां भाभी, मुझे क्वीन तो नहीं कहो.’’

‘‘बिना लिए क्यों जाएगी, क्या तेरी मां मर गई है,’’ प्रमिला दूर से अपनी बेटी की बात सुन कर बोलीं.

‘‘रश्मि, अम्मांजी हजारों साल जिंदा रहें पर तुम्हारा खाने का डब्बा मुझे लगाना है, इसलिए जल्दी बोलो क्या चाहिए,’’ सविता ने फुसफुसा कर रश्मि से कहा. सविता की आवाज की गरमी से प्रमिला झलस कर रह गईं.

‘‘मैं तो इस घर में बस भाड़ ?झोंक रही हूं,’’ सविता बड़बड़ा उठी. प्रमिला ने सुन लेने के बाद भी पूछा, ‘‘क्या मुझसे कुछ कहा सविता?’’

‘‘नहीं मम्मी, सवेरे देर से उठी थी इसलिए हनुमान चालीसा पढ़ रही हूं.’’

‘‘पढ़ो बहू जरूर पढ़ो.’’

अब जब से वे नए घर में शिफ्ट हुए हैं, प्रमिला को पता चल रहा है कि घर संभालना उम्र हो जाने के बाद कितना कठिन हो जाता है. अब सविता ने घर से निकलते हुए बैठक की ओर देखा, चारों तरफ चीजें ढंग से रखी थीं.

सास- ससुर के घर में बाबूजी का आधा पढ़ा अखबार कुरसी पर चिडि़या की तरह अपने पंख फड़फड़ा रहा होता था. पैंसिलें कालीन पर पड़ी होतीं. रश्मि की चप्पलें खाने की मेज के नीचे रखी होती थीं. खाने की मेज पर जूठे बरतन, प्याले पड़े होते थे. प्रतिमा आराम से चौकी पर बैठ कर अपनी टांगों में तेल की मालिश कर रही होतीं और ऊंचे स्वर में भक्ति गीत गा रही होतीं. हर सुबह सविता को यह दृश्य देखने को मिला करता.

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