कहानी- मेहर गुप्ता
‘‘निक्कीतुम जानती हो कि कंपनी के प्रति मेरी कुछ जिम्मेदारियां हैं. मैं छोटेछोटे कामों के लिए बारबार बौस के सामने छुट्टी के लिए मिन्नतें नहीं कर सकता हूं. जरूरी नहीं कि मैं हर जगह तुम्हारे साथ चलूं. तुम अकेली भी जा सकती हो न. तुम्हें गाड़ी और ड्राइवर दे रखा है... और क्या चाहती हो तुम मुझ से?’’
‘‘चाहती? मैं तुम्हारी व्यस्त जिंदगी में से थोड़ा सा समय और तुम्हारे दिल के कोने में अपने लिए थोड़ी सी जगह चाहती हूं.’’
‘‘बस शुरू हो गया तुम्हारा दर्शनशास्त्र... निकिता तुम बात को कहां से कहां ले जाती हो.’’
‘‘अनिकेत, जब तुम्हारे परिवार में कोई प्रसंग होता है तो तुम्हारे पास आसानी से समय निकल जाता है पर जब भी बात मेरे मायके
जाने की होती है तो तुम्हारे पास बहाना हाजिर होता है.’’
‘‘मैं बहाना नहीं बना रहा हूं... मैं किसी भी तरह समय निकाल कर भी तेरे घर वालों के हर सुखदुख में शामिल होता हूं. फिर भी तेरी शिकायतें कभी खत्म नहीं होती हैं.’’
‘‘बहुत बड़ा एहसान किया है तुम ने इस नाचीज पर,’’ मम्मी के व्यंग्य पापा के क्रोध की अग्निज्वाला को भड़काने का काम करते थे.
‘‘तुम से बात करना ही बेकार है, इडियट.’’
‘‘उफ... फिर शुरू हो गए ये दोनों.’’
‘‘मम्मा व्हाट द हैल इज दिस? आप लोग सुबहशाम कुछ देखते नहीं... बस शुरू हो जाते हैं,’’ आंखें मलते हुए अनिका ने मम्मी से कहा.
‘‘हां, तू भी मुझे ही बोल... सब की बस मुझ पर ही चलती है.’’
पापा अंदर से दरवाजा बंद कर चुके थे, इसलिए मुझे मम्मी पर ही अपना रोष डालना पड़ा था.