फोनकी घंटी बजी. विदिशा ने फोन उठाया था. उधर वाचमैन था, ‘‘मैडम, आप को कामवाली की जरूरत है क्या? एक लेडी आई है. कह रही है कि आप ने उसे बुलाया है.’’

‘‘भेज दो.’’

विदिशा की कामवाली गांव गई हुई थी.

1 महीने से वे खाना बनाबना कर परेशान थीं. इसलिए वे अकसर सब से कहती रहती थीं कि कोई कामवाली बताओ. वे सोच रही थीं कि जो भी होगी, उसे वह रख लेंगी, बाद में देखा जाएगा. तभी दरवाजे की घंटी बजी, ‘‘दीदी, जय बंसी वाले की…’’

तकरीबन 54-55 साल की पतलीछरहरी महिला, जिस का रंग गेहुंआ था, नैननक्श तीखे थे, साफसुथरी हलके रंग की साड़ी पहनी हुई थी. माथे पर चंदन का टीका लगाए हुई थी और गले में रुद्राक्ष की माला पहनी थी.

‘‘कैसे आई…’’

‘‘दीदी, हम नाम भूल रहे हैं, गेटकीपर

कहा था कि मैडम को खाना बनाने वाली की जरूरत है. हमें काम की जरूरत है, आप को कामवाली की.’’

 

विदिशा की मम्मीजी भी वहीं बैठी हुईर् थीं. उन्होंने मम्मीजी को उस से

बात करने के लिए इशारा किया.

‘‘पैसा कितना लोगी?’’

‘‘माताजी आप मेरा काम देख लो, फिर

जो ठीक लगे, वह दे देना. वैसे आप जो पहली को दे रही हो, उस से कम से कम क्व200 बढ़ा कर दे दो.’’

विदिशा उस की चतुराई पर मुसकरा उठी थी. वह उस की वाक कुशलता देख रही थी.

‘‘तुम अपना नाम तो बताओ?’’

‘‘हमारा नाम श्यामा है.’’

‘‘देखो, श्यामा, बुरा मत मानना, तुम कौन सी बिरादरी से हो?’’

‘‘हम बहुत ऊंचे कुल के ब्राह्मण हैं. प्रयागराज में ब्याह हुआ रहा. खूब चैनचौन रहा, लेकिन किस्मत फूट गई. एक दिन हमारे मालिक दुकान से आ रहे थे कि तभी उन की साइकिल में मोटर साइकिल वाले ने टक्कर मार दी और उन की सांस छूट गई. बस फिर तो सब की नजरें बदल गईं.

‘‘हम तो नौकरानी बन के भी खुश रहे, लेकिन एक रात हमारे ससुर रात को कमरे में आ गए. हम मुश्किल से अपनी इज्जत बचा पाए. अगले दिन 10 बरस की बिटिया का हाथ पकड़ कर घर से निकल आए. कुछ दिनों तक तो मायके में रही, लेकिन माताजी आप तो जानती हो कि जब अपना कोई नहीं तो सपना क्यों?’’

वह अपने पल्लू से अपने आसुंओं को पोंछ रही थी. मम्मीजी तो उस के आसुंओं को देख पिघल उठी थीं. बस, उसी क्षण से उन के घर में श्यामा आंटी का प्रवेश हो गया था.

‘‘जय बंसी वाले…’’ उन का तकिया कलाम था. वे आते और जाते समय जरूर बोलतीं. मम्मीजी की श्यामा आंटी से बहुत अच्छी बनती थी, यह भी उन के लिए बहुत खुशी की बात थी.

थोड़े दिनों में ही श्यामा आंटी ने अपनी पाककला और मीठीमीठी बातों से सब का दिल जीत लिया था. उन्हीं दिनों विदिशा की किट्टी की चिट निकल आई. अब तो श्यामा आंटी की पाककला, उन के लिए सोने में सुहागा की तरह था.

‘‘श्यामा आंटी, मेरे घर में किट्टी में 15-16 महिलाएं आएंगी. आप सब के लिए नाश्ता बना दीजिएगा.’’

‘‘अरे दीदी, आप चिंता न करें. आप जो भी कहेंगी हम सब बना देंगे. आप की सखियां उंगली चाटती हुई जाएंगी.’’

 

मौसम सुहावना हो रहा था. हलकीहलकी फुहारें पड़

रही थीं. ऐसे समय में विदिशाजी के यहां हरियाली तीज के उपलक्ष्य में ‘तीज मिलन’ की किट्टी थी. सभी महिलाएं हरेहरे परिधानों में सजी हुई थीं.

आज उन का घर हंसी के ठहाकों और खिलखिलाहट से गुंजायमान हो रहा था. आज विशेषरूप से हरियाली थीम रखी गई थी. विदिशाजी ने हरेहरे पत्तों और मोर पंखों के द्वारा सुंदर सजावट की थी.

स्टार्टअप में महिलाओं के सामने खस था. हराहरा शरबत और पालक की हरीहरी पकौडि़यां चटनी के साथ सब को बहुत पसंद आ रही थी. श्यामा आंटी पकौडि़यां सेंक भी रही थीं और ला कर दे भी रही थीं.

अंचल बोली, ‘‘विदिशा, यह नमूना तुम्हें कहां से मिला?’’

‘‘बस मिल गई.’’

‘‘कुछ भी कहो, आज जैसी पकौडि़यां और शरबत… मजा आ गया.’’

फिर तो अर्चना, गीता और पूनम सभी ईर्ष्या से विदिशा के भाग्य को सराहती हुईं लालची निगाहों से श्यामा आंटी की ओर देख रही थीं. पूनम बोली, ‘‘विदिशा, तुम्हारी श्यामा आंटी तो ऐसा लगता है कि किसी मंदिर से सीधा उठ कर आ गई हैं. पूरी मलिन लगती हैं.’’

‘‘धीरे बोलो, पूरी पंडिताइन हैं. प्याज

नहीं खातीं. जूठेमीठे का बहुत परहेज करती हैं और छुआछूत तो बस पूछो नहीं. डाइनिंग टेबल पर रखी कोई चीज नहीं खातीं. कई बार गुस्सा

भी जाती है, लेकिन यार, खाना बहुत टैस्टी

बनाती हैं.’’

‘हाउजी गेम’ पूरा हुआ ही था कि वे किचन से आ कर बोली थीं, ‘‘दीदी, नाश्ता डाइनिंग टेबल पर लगा दिया है. मैं पकौडि़यां सेंकने जा रही हूं.’’

 

सुगंधा हराहरा ढोकला चखते ही खुश हो कर बोली, ‘‘विदिशा, ढोकला क्या

हलदीराम से मंगाया है, बहुत सौफ्ट और टैस्टी है. वाहवाह… ऐसा लग रहा है, खाती जाऊं.’’

श्यामा आंटी ने सब की प्लेट में ढोकला रख दिया. तभी विदिशाजी ने उन की तरफ इशारा करते हुए कहा, ‘‘आज तो सारी चीजें श्यामा आंटी ने ही बनाई हैं…’’

सुगंधा तो चापलूसी कहते हुए बोली, ‘‘श्यामा आंटी, तुम्हारी कोई बहनवहन नहीं है क्या? मेरे लिए अपने गांव से ले आओ, उसे मुंहमांगे पैसे दूंगी. आशीष को तो खाने का

बहुत शौक है और संगीता तो कुछ अच्छा बनाती ही नहीं.’’

तभी विदिशा किचन से हरीहरी पूडि़यां और पालकपनीर की सब्जी सर्व करने लगी थी. वह अंदर पूडि़यां लेने गई थी तो श्यामा आंटी बोलीं, ‘‘दीदी, हाथ तो धो लेतीं, आप ने तो सब जूठा कर दिया. खैर मु?ो क्या? आप का घर है, जैसे चाहो वैसे करो,’’ वह तमतमा उठी थी लेकिन अपनेआप को कंट्रोल किया था.

उस की किट्टी अच्छी तरह संपन्न हुई इसलिए वह बहुत खुश थी. श्यामा आंटी के लजीज व्यंजनों के कारण आज उन की सखीसहेलियों के बीच उन का कद ऊंचा हो गया था.

‘‘दीदी, वीरवार को पीला कपड़ा पहना करो, ठाकुरजी का आशीर्वाद मिलता है. बंसीवाले, आप दोनों की जोड़ी बनाए रखें.’’

अखिल लंच के लिए आते तो वे घूंघट निकाल लेतीं और उन से घूंघट की ओट से

बात करतीं.

‘‘श्यामा, चावल का डोंगा रखना भूल गईर् हो, दे जाओ.’’

‘‘दीदी, आज एकादश है. इस दिन चावल नहीं खाना चाहिए.’’

अखिल को चावल बहुत पसंद थे, ‘‘सुनिए, हम लोग यह सब नहीं मानते… शाम को बना दीजिएगा.’’

‘‘भैया, एक दिन चावल न खाओगे तो क्या हो जाएगा?’’

उन की आंखों से टपटप आंसू बह रहे थे. वातावरण भारी हो गया था. उन्होंने पति को इशारे से चुप रहने को कहा था.

‘‘यह तुम्हारी श्यामा आंटी तो पूरी नाटक मंडली हैं.’’

एक दिन उन्होंने 1 बजा दिया. अखिल का आने का समय हो रहा था, इसलिए उन्होंने सब्जी छौंक दी थी, तभी वे आ गईं.

‘‘श्यामा आंटी, आज इतनी देर क्यों करा दी? भैया बस आने वाले ही होंगे.’’

‘‘दीदी, आज सावन का सोमवार है न, इसी वजह से हम आज उपासी हैं. मंदिर में भीड़ थी इसलिए देर हुई. हम तो दीदी, घर में मुंह में पानी भी नहीं डाले और भागे आए कि भैया को खाना में देर न हो जाए.’’

अब यदि श्यामा आंटी उपासी हैं, तो स्वाभाविक है कि उन की मालकिन विदिशा दीदी उन के लिए कुछ न कुछ फलाहार का इंतजाम तो करेंगी ही. उन्होंने फ्रिज से फल वगैरह निकाल कर रख दिए थे.

‘‘चलो मैं खाना बनाने में तुम्हारी हैल्प कर देती हूं.’’

‘‘नहीं दीदी, कोई बात नहीं है. हम बना लेते हैं. आप बिलकुल भी परेशान न हों.’’

वे उन्हें दिखादिखा कर फ्रिज से बारबार पानी निकाल कर पी रही थीं, ‘‘दीदी, आज गरमी बहुत है और उपासी भी है इसीलिए परेशान हैं.’’

‘‘जाओ, तुम अपने लिए जूस बना कर पी लो, तुम्हें आराम मिल जाएगा.’’

अब उन्होंने श्यामा आंटी से दूरी बना ली थी, ज्यादा बात नहीं करती थी. एक दिन वह काम में लगी थी, इसलिए अभी नहाई नहीं थी.

‘‘दीदी, बच के निकलो. हम नहाधो कर आए हैं. आप बासी कपड़ा पहने हो.’’

उन्हें गुस्सा तो बहुत जोर से आया पर अपनेआप को रोक लिया था. वह जितनी देर काम करतीं, कृष्णजी के पद गुनगुनाती रहतीं. उन्हें कभी उल?ान भी होती पर भगवान के नाम पर वे भला क्या बोलतीं.

‘‘दीदी, राधावल्लभ मंदिर में भागवत बैठी है. 5-6 दिन की बात है, हम जल्दी खाना बना दिए हैं. आप खाना गरम कर लेना.’’

वह संकोचवश मना नहीं कर पाई और श्यामा आंटी आराम से भागवतकथा का आनंद लेने चलती बनीं.

वे अकसर अपनी मीठीमीठी बातों के जाल में फंसा कर बेवकूफ बनाती रहतीं, ‘‘दीदी, आज रुक्मिणी विवाह है. पंडितजी कहते हैं कि साड़ी चढ़ाओ, सुहाग का समान चढ़ाओ. ठाकुरजी तुम्हारे सुहाग बनाए रखें. कोई मिलीजुली साड़ी रखी हो तो दे दो. हम तुम्हारे नाम से चढ़ा देंगे.’’

‘‘मेरे पास कहां रखी है कि मैं नई साड़ी दूं.’’

‘‘दीदी, क्व51 की सुहाग पिटरिया तो देखो, हम लाए हैं खरीद कर…’’

उस का मंतव्य सम?ाते हुए उन्होंने क्व500 का नोट निकाल कर दिया था, ‘‘लो, साड़ी खरीद लेना.’’

‘‘जय बंसी वाले की. आप दिल की बहुत बढि़या हैं…’’

उन्होंने गौर किया था कि जब से श्यामा आंटी ने काम करना शुरू किया था, शुरू में तो वे डरीडरी सी रहती थीं लेकिन जब साल बीत गया तो वे अपनी चालाकी दिखाने लगी थीं.

सोसायटी की मित्रमंडली में से अकसर ही कभी अनन्या तो कभी सुगंधा आ ही जाती फिर चाय पी कर जातीं लेकिन उन लोगों की निगाहें तो श्यामा आंटी पर ही लगी रहती, ‘‘आंटी, आप अपने गांव से अपनी जैसी औरत या लड़की मेरे लिए भी ले आइए.’’

वे भी बहुत तेज थी. हां में हां मिला कर कहतीं, ‘‘अपने गांव हम ने खबर कर दी है. रमा आ जाएगी.’’

अंचल तो लड़ पड़ी थी, ‘‘देखो विदिशा, तुम्हारे सामने की बात है, उसे तो मैं अपने घर में रखूंगी.’’

‘‘अरे यार, पहले आने तो दो,’’ कहते हुए उस दिन की सभा विसर्जित हुई थी.

सालभर के अंदर श्यामा आंटी पंडिताइन नाम से सोसायटी भर में मशहूर हो चुकी थीं. सोसायटी में उन्हें फुसलाने की होड़ लगी हुई थी.

पहले तो विदिशा के पास कभी पूनम तो कभी कल्पना का फोन आता, ‘‘दीदी, पंडिताइन को मेरे घर भेज देना. कुछ मनसा, पूजा का सामान रखा हुआ है.’’

रोजरोज के झमेलों से उन्हें उल?ान होने लगती थी. कभीकभी वह भुनभना भी उठती थी. उस ने गौर किया था कि श्यामा आंटी खूब घी, मसालेदार खाना बनाती थीं, जो स्वाद में तो सब को अच्छा लगता था मगर स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह था. वे अपनी पसंद का ही खाना बनातीं, चाहे कितना उन्हें बता कर आती लेकिन वे अपने हिसाब से अधिक बना लेतीं ताकि अपने घर खाना ले जा सकें.

घर के अंदर उन के सामने तो छुआछूत और जूठेमीठे का नाटक करतीं कि मैं कुछ भी नहीं खाऊंगी, आज पूर्णमाशी है, एकादशी है, आज मंगल का व्रत है. पर अब सम?ा में आने लगा था कि वह भरभर कर खाना अपने घर ले जाना चाहती हैं इसीलिए यहां खाने से मना कर देती थीं.

अब वह उन की होशियारी काफी कुछ पहचानने लगी थी. लेकिन सुगंधा, अर्चना, अंचल के घर से दानपुण्य के नाम पर रोज ?ोला भरभर कर सामान अपने साथ ले जाया करतीं.

अपनी पाककलाके बलबूते सोसायटी में कभी कहीं तो कभी कहीं नाश्ता बनाने की उन की बुकिंग रहती. अब नामचीन कुक के

साथसाथ पंडिताइन के लैबल के चलते उन की कमाई में चौगुनी बढ़ोत्तरी हो गई थी, साथ ही सब के मन में ब्राह्मणी के लिए आदर की भावना अलग से थी. महिलाएं उन के पैर छू कर उन से आशीर्वाद लेतीं.

सोसायटी में उन की जानपहचान की महिलाएं धार्मिक प्रवृत्ति की थीं. एकदूसरे को देख कर आपस में होड़ थी. यदि किसी ने साड़ी दी, तो आगेपीछे दूसरी भी साड़ी देगी.

अब श्यामा आंटी ने एक नया पैंतरा फैलाया था. वे अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए ज्ञान दिखातीं. अपने मीठे सुर में गा कर सब को सुनातीं.

जब कभी विदिशा नाराज होती तो वह धीरेधीरे गुनगुनाने लगती, ‘‘ऐसी बानी बोलिए मन का आपा खोए…’’

एक दिन मम्मीजी से पूछ रही थीं, ‘‘काहे माताजी तुम्हारे घर में महीना की छूट नहीं मानी जाती क्या?’’

अब वह देख रही थी कि श्यामा आंटी का खाना बनाने का काम सैकंडरी हो चुका था और सोसायटी में दूसरों के घरों में जा कर उन के काम करना प्राइमरी हो गया था.

उन्हीं दिनों पितृपक्ष शुरू हो गए थे. अब तो सभी महिलाओं को अपनेअपने पुरखों को खुश करने के लिए खाना बनाने के लिए भी पंडिताइन की जरूरत होती थी और खाना खाने के लिए पंडिताइन की आवश्यकता थी.

श्यामा आंटी की तो चांदी थी. रोज बढि़या खाना, नगद दक्षिणा और फलमिठाई… कहीं साड़ीकपड़ा तो कहीं बरतन. आदरसम्मान मुफ्त में.

अब वह उन के घर समयबेसमय आया करतीं और खाना भी आधाअधूरा या उलटासीधा बना कर, ‘‘आज जल्दी है कल कर दूंगी,’’ कह कर चल देती थीं.

चापलूसी करते हुए कहतीं, ‘‘दीदी, आप के घर काम तो कभी नहीं छोड़ूंगी. आप की वजह से ही तो हमें इतना काम मिला है.’’

मगर सचाई है कि रंगा हुआ सियार कभी न कभी असली रंग में आएगा ही.

एक दिन वे घर में खाना बना रही थीं कि तभी उन का पुराना इलैक्ट्रिशियन राहुल उन के घर आया. जैसे ही उस ने श्यामा आंटी को किचन में काम करते हुए देखा वह चौंक कर उसे देखता ही रह गया था.

उस समय विदिशा भी किचन में ही थी इसलिए श्यामा आंटी के चेहरे के उतारचढ़ाव को और साथ ही अपने होंठों पर उंगली रख कर उसे चुप रहने का इशारा करते हुए देख लिया था.

‘‘क्यों राहुल, तुम लोग एकदूसरे को जानते हो क्या?’’

वह कुछ जवाब दे पाता, इस के पहले ही श्यामा आंटी जोर से बोल पड़ी थीं, ‘‘नहीं न… इन को तो हम कभी देखे ही नहीं हैं…’’

लेकिन उन का उड़ा हुआ सफेद पड़ता चेहरा देख कर उन का शक पक्का हो गया था कि दाल में कुछ काला है.

‘‘क्यों रमा, तुम आंटी के किचन में कैसे घुस गईं?’’

‘‘कौन रमा, इस का नाम तो श्यामा है.’’

‘‘नहीं भाभी, इस का घर तो लालपुरा में है. मैं तो इन लोगों के पुरखों तक की जानकारी रखता हूं. भाभी, आप ने इस से खाना कैसे बनवाया? इस का पूरा परिवार ही यहीं रहता है और आएदिन आपस में सब लड़ते रहते हैं. इस की मां तो गांव के मंदिर के बाहर की सफाई करती थी.’’

इसी दौरान श्यामा आंटी जाने कब दबे पांव वहां से नौदो ग्यारह हो चुकी थीं. अगले दिन विदिशा लालपुरा की बस्ती में श्यामा के घर के आगे खड़ी थी. यह राज बस उन्हें ही मालूम रहेगा कि श्यामा आंटी कोई पंडिताइन नहीं, बल्कि रमा है और पूरे परिवार के साथ यहीं रहती हैं. काफी मानमनौव्वल और क्व100 बढ़वा कर ही श्यामा आंटी मानी थीं. अब हर रोज विदिशा को भी ‘जय बंसी वाले की’ बोलना पड़ता.

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