लेखिका- कुसुम पारीक

सायरन बजाती हुई एक एम्बुलेंस अस्पताल की ओर दौड़ पड़ी. वहां की औपचारिकताएं पूरी करने में दोतीन घंटे लग गए थे.

सारी कार्यवाही कर जब वे वापस आए तब घर में केवल राघव और मैं थे.

राघव और 'मैं' यानी पड़ोसी कह लीजिए या दोस्त, हम दोनों का व्यवसाय एक था और पारिवारिक रिश्ते भी काफी अच्छे थे.

हम सब मित्रों की संवेदनाएं राघव के साथ थीं कि इस उम्र में पत्नी मुग्धा जी मानसिक असंतुलन खो बैठी हैं और उन्हें अस्पताल में भरती करवाना पड़ा था.

हर कोई राघव की बेचारगी से परेशान था लेकिन ध्यान से देखने पर मैं ने पाया कि वहां असीम शांति थी.

मुझे आश्चर्य जरूर हुआ था लेकिन शक करने की कोई वज़ह मुझे नहीं मिली थी क्योंकि मैं क्या, लगभग हर जानपहचान वाले यही सोचते थे कि यह एक आदर्श जोड़ा है जो अपनी हर जिम्मेदारी बख़ूबी निभाता आया है.

हम सब जानते थे कि राघव की पत्नी बहुत पढ़ीलिखी थी जो घरबाहर के हर काम में निपुण थी.

हम दोस्त लोग बातें किया करते थे कि राघव समय का बलवान है जो इतनी आलराउंडर पत्नी मिली है. कई समस्याएं वह चुटकियों में सुलझा देती थी. राघव को केवल औफिस के काम के अलावा कुछ नहीं करना पड़ता था.

शाम को चाय की चुस्कियों के साथ कई बार हम शतरंज की बिसात बिछा लेते थे. कम बोलने वाला राघव अपनी हर चाल लापरवाही से चलता था. कई बार उस का वज़ीर तक उड़ जाता था लेकिन पता नहीं कैसे अंत में एक प्यादे को अंतिम स्थान पर पहुंचा कर अपने वज़ीर को ज़िंदा करवा लेता था.

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