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इस विषय पर अब उस ने सोचना बंद कर दिया है. सोचसोच कर बहुत दिमाग खराब कर लिया पर आज तक कोई हल नहीं निकाल पाई. उस ने लाख कोशिश की कि मुट्ठी से कुछ भी न फिसलने दे, पर कहां रोक पाई. जितना रोकने की कोशिश करती सबकुछ उतनी तेजी से फिसलता जाता. असहाय हो देखने के अलावा उस के पास कोई चारा नहीं है और इसीलिए उस ने सबकुछ नियति पर छोड़ दिया है.

दुख उसे अब उतना आहत नहीं करता, आंसू नहीं निकलते. आंखें सूख गई हैं. पिछले डेढ़ साल में जाने कितने वादे उस ने खुद से किए, निखिल से किए. खूब फड़फड़ाई. पैसा था हाथ में, खूब उड़ाती रही. एक डाक्टर से दूसरे डाक्टर तक, एक शहर से दूसरे शहर तक भागती रही. इस उम्मीद में कि निखिल को बूटी मिल जाएगी और वह पहले की तरह ठीक हो कर अपना काम संभाल लेगा.

सबकुछ निखिल ने अपनी मेहनत से ही तो अर्जित किया है. यदि वही कुछ आज निखिल पर खर्च हो रहा है तो उसे चिंता नहीं करनी चाहिए. उस ने बच्चों की तरफ देखना बंद कर दिया है. पढ़ रहे हैं. पढ़ते रहें, बस. वह सब संभाल लेगी. रिश्तेदार निखिल को देख कर और सहानुभूति के चंद कतरे उस के हाथ में थमा कर जा चुके हैं.

देखतेदेखते कुमुद टूट रही है. जिस बीमारी की कोई बूटी ही न बनी हो उसी को खोज रही है. घंटों लैपटाप पर, वेबसाइटों पर इलाज और डाक्टर ढूंढ़ती रहती. जैसे ही कुछ मिलता ई-मेल कर देती या फोन पर संपर्क करती. कुछ आश्वासनों के झुनझुने थमा देते, कुछ गोलमोल उत्तर देते. आश्वासनों के झुनझुनों को सच समझ वह उन तक दौड़ जाती. निखिल को आश्वस्त करने के बहाने शायद खुद को आश्वस्त करती. दवाइयां, इंजेक्शन, टैस्ट नए सिरे से शुरू हो जाते.

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