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जिंदगी अभी उसे बहुत से स्याह-सफेद रंग दिखाने वाली थी. मां चाहती थी कि जितनी जल्दी हो सके, बेटी की दूसरी शादी कर दी जाए.

‘अभी उम्र ही कितनी है. कुछ भी तो नहीं देखा इस ने. इस की उम्र में तो लड़कियों की शादी तक नहीं होती. और ये…’ जाहिर तौर पर तो बेटी के दर्द को जीती मां खुद को संतुष्ट करने के लिए ही कहती थी मगर असल में तो वह बेटी को अपराधबोध से बचाने का जतन कर रही थी.

नहीं-नहीं, वह व्योम की मृत्यु के लिए बेटी को अपराधी नहीं मान रही थी. वह तो वैष्णवी को उस अपराधबोध से नजात दिलाना चाह रही थी जो उस पर जबरदस्ती लाद दिया गया था.

‘शुभ काम में वैष्णवी की परछाई भी न पड़े’ जैसी फिक्र करती अधेड़ और वृद्ध महिलाओं से ले कर अपने युवा और अधेड़ पतियों को वैष्णवी की छाया से दूर रखने का प्रयास करती, चिंता में घुलती महिलाओं की रातों की नींद उड़ती देख रही मां का फिक्रमंद होना लाजिमी था. वह बेटी को इन तमाम विपरीत परिस्थितियों से दूर ले जाना चाहती थी और इस का एक मात्र रास्ता था कि उस की शादी हो जाए ताकि वैधव्य का दाग उस के माथे से हट सके.

दूसरी तरफ पापा उस के लिए कुछ और ही सोच रहे थे. वे जानते थे कि जो हो गया उसे तो बदला नहीं जा सकता लेकिन जो होने जा रहा है, उसे अवश्य बदला जा सकता है बशर्ते कि प्रयास सही तरीके और योजना के साथ किया जाए.

‘व्योम तो वैष्णवी को विधवा का चोला दे कर चला गया लेकिन वैष्णवी चाहे तो इस चोले की सफेदी में रंग भर सकती है. हम दूसरे पति के रूप में उस का सहारा क्यों तलाश करें. क्यों न उस सहारे को तलाश करें जो पहला पति उस के लिए छोड़ गया है,’ पापा ने मां को समझाते हुए कहा तो वह बिफर गई.

‘आप की गोलगोल बातें मेरी मोटी बुद्धि में नहीं आतीं. ऐसा कौन सा कुबेर का खजाना छोड़ कर गया है व्योम जिस के सहारे वैष्णवी की जिंदगी कट जाएगी? लंबी उम्र है, साथी बिना कैसे कटेगी? जितनी जल्दी हो सके, लड़का तलाश कर लो, उम्र बढ़ने के साथसाथ चौइस भी सीमित हो जाती हैं,’ मां ने अपनी समझ के अनुसार कहा.

‘कारू का खजाना तो देरसवेर खर्च हो सकता है लेकिन जो खजाना व्योम इसे दे कर गया है उस की कोई बराबरी नहीं. अब देखो, व्योम चला गया इस बात का दुख हम सब को है, लेकिन पति की मृत्यु के बाद उस की विधवा पत्नी को सरकारी कोटे में आरक्षण का लाभ मिलता है. मैं वैष्णवी को कोई व्यावसायिक कोर्स करवा कर या किसी अच्छी प्रतियोगी परीक्षा में शामिल कर के उस के भविष्य को स्वर्णिम बनाने पर विचार कर रहा हूं. यही वह खजाना है जो आखिरी सांस तक वैष्णवी के पास रहेगा और इसे कोई छीन भी नहीं सकता,’ पापा ने विस्तार से समझाया तो मां के माथे की सिलवटें धीरेधीरे हलकी होने लगीं. हालांकि, कुछ हलकी लकीरें अभी भी विद्यमान थीं.

‘इस तरह तो बरसों बीत जाएंगे. तब तक क्या लड़की यों ही समाज और बिरादरी के ताने सुनती रहेगी?’ मां ने चिंता जाहिर की.

‘समाज का क्या है, वह तो चढ़ते को भी बोली मारता है और उतरते को भी. अच्छी नौकरी लग जाएगी तो रिश्ते भी अच्छे ही मिलेंगे. यदि अभी शादी कर दी तो वैष्णवी को आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा,’ पापा के समझाने पर बात मां को समझ में आ गई.

उधर खुद वैष्णवी अभी पति के जाने के गम से उबरी नहीं थी. वह भी कुछ ऐसा करना चाहती थी जिस में वह व्यस्त रहे वरना व्योम की यादों के जंगल में ही भटकती रहेगी.

वैष्णवी विज्ञान विषय बौटनी में पोस्टग्रेजुएट थी. उस ने जूनियर रिसर्च फैलोशिप की परीक्षा दी और चयन होने के बाद पीएचडी की पढ़ाई शुरू कर दी. 3 वर्षों बाद वैष्णवी अब डा. वैष्णवी बनने वाली थी. इस दौरान बहुत से कड़वेखट्टे अनुभवों का स्वाद उस ने चखा था. मीठे अनुभवों की संख्या बेहद सीमित थी. या कौन जाने, उस की स्वादेन्द्रियां ही नष्ट हो चुकी थीं क्या… उसे हर मीठे में नमकीन की मिलावट ही नजर आती थी.

व्योम के जाने के बाद वैष्णवी के लिए सब से पहला प्रस्ताव उस के ममेरे देवर विभोर का आया था. पापा ने शादी करने का कारण पूछा तो उस ने वैष्णवी से लगाव होना बताया.

‘कब से है तुम्हें प्यार?’ पापा ने पूछा था. विभोर कोई जवाब नहीं दे पाया. बाद में पता चला कि व्योम ने 50 लाख रुपए की टर्म बीमा पौलिसी ले रखी थी जिस की नौमिनी वैष्णवी थी. सास की इच्छा थी कि घर का पैसा घर में रहे, इसलिए उस ने अपने बड़े भाई को विश्वास में ले कर यह प्रस्ताव वैष्णवी के पास पहुंचाया था. वैष्णवी चूंकि पढ़ीलिखी और खूबसूरत भी थी इसलिए विभोर को भी अधिक एतराज न हुआ. हां, उस का वर्जिन नहीं होना जरूर उसे खटक रहा था लेकिन वह खुद भी कहां वर्जिन था. इसलिए उस ने इस बात को अधिक तूल न दिया.

वैष्णवी को अभी विवाह करने में कोई दिलचस्पी न थी, इसलिए वह आगे बढ़ गई. बीमा पौलिसी से मिला पैसा उस ने फिक्स डिपौजिट में डाल दिया. यह उस के लिए बहुत बड़ा संबल था.

पीएचडी करने के दौरान भी कई पुरुष वैष्णवी की जिंदगी में आए. उस ने सहानुभूति दिखाने वाले हरेक रिश्ते को नकार दिया. अधिकतर निगाहों में उसे लोलुपता ही दिखाई दे रही थी. कोई उस के रूप का प्यासा था तो किसी की नजर उस के मोटे बैंकबैलेंस पर थी. कोई उसे सोने का अंडा देने वाली मुरगी समझ रहा था तो कोई लगातार दूध देने वाली गाय. हर जगह स्वार्थ दिखा, प्यार कहीं नहीं था.

वैष्णवी बच्ची नहीं थी. सब समझती थी. वैसे भी बुरा वक्त इंसान के दिमाग को अधिक चौकन्ना कर देता है. वैष्णवी भी चाहत और लोलुपता के बीच के अ

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