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“मौसम की तरह लोग भी बदलते हैं.” दुनिया के लिए चाहे यह सिर्फ किताबों में पढ़े हुए एक जुमले तक ही सीमित होगा लेकिन वैष्णवी असल जिंदगी में ऐसे बहुत से कटु अनुभवों से गुजरी है. अपने इन्हीं अनुभवों के आधार पर वह दावा कर सकती है कि कहावतें, मुहावरे, धारणाएं या मान्यताएं अकस्मात नहीं बना करतीं. उन के पीछे अवश्य ही कोई पुख्ता कारण रहते होंगे.

अट्ठाइस की उम्र में इतने खट्टे अनुभवों से गुजरना कितना त्रासद होता होगा, यह भी हर कोई नहीं समझ सकता. “जाके पांव न फटे बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई” इस कहावत के पीछे भी तो कोई गहरा और कड़वा अनुभव ही रहा होगा.

पिछले 3 वर्षों से वैष्णवी इसी तरह रंग बदलती दुनिया को देख रही है. हर रोज नकाब उतरता चेहरा अपने किसी न किसी घनिष्ठ का ही होता है.

‘काश कि मेरी आंखों पर मोह की यह पट्टी बंधी ही रहती तो सोने के सोना होने का वहम तो बना रहता. पट्टी खुलने से तो सुनहरे मुलम्मे के पीछे छिपा पीतल मुंह चिढ़ाने लगा है.’ वैष्णवी यह सोचती और मित्र व परिजनों के दोगले मुंह देखसुन कर अपना जी जलाती रहती.

वैष्णवी आज भी नहीं भूली उस मनहूस रात को जब पति व्योम का हाथ उस के हाथ से छूट गया था. वह व्योम के साथ जयपुर के मशहूर राजमंदिर सिनेमाहौल में फ़िल्म देखने गई थी. मैटिनी शो के बाद उन दोनों का चोखी ढाणी जाने का प्रोग्राम था. पूरी शाम वहीं बिताने के बाद वे डिनर कर के ही वापस आने वाले थे.

अभी सालभर पहले ही तो शादी हुई थी उन की, इसलिए अभी वे दोनों हनीमून पीरियड में ही चल रहे थे. उस शाम वैष्णवी बहुत खुश थी. चोखी ढाणी में चल रहे कठपुतलियों के नाच ने तो उसे इतना उत्साहित कर दिया था कि वह अपनेआप को उन के साथ थिरकने से नहीं रोक सकी. और वहां बैठी लोकगायिका द्वारा छेड़े गए उस मधुर लोकगीत ‘केसरिया बालम आवो नीं पधारो म्हारै देस…’ की स्वरलहरी ने तो उसे इस कदर भावविह्वल कर दिया कि वह पूरी शाम उसी लोकगीत को गुनगुनाती, चुंबक की तरह व्योम के हाथ से ही लिपटी रही.

हम जिस पल में जी रहे होते हैं, दरअसल, जिंदगी सिर्फ उसी पल में सिमटी होती है. जो पल बीत गया उसे वापस नहीं लाया जा सकता और जो बीतने वाला है उस के बारे में कोई नहीं जानता कि कैसे बीतने वाला है. ऐसा ही एक अजनबी पल वैष्णवी की जिंदगी में भी आने को तैयार बैठा था. प्रेम में आकंठ डूबी, अधमुंदी आंखों से वे बाइक पर सवार हवा से होड़ लगा रहे थे कि एक अंधे मोड़ पर तेज गति से घूमते ट्रक पर उन की निगाह ही नहीं गई.

चर्रर्रर्र… की तेज आवाज के साथ ब्रेक भी लगे लेकिन यह सब इतना अकस्मात हुआ कि व्योम अपनी बाइक को संभाल नहीं पाया और बाइक स्लिप हो गई. हवा में उछलता हुआ व्योम करीब 10 फुट दूर जा कर गिरा. दूसरी तरफ सड़क किनारे पड़े नुकीले पत्थर से वैष्णवी का सिर टकराया और वह अचेत हो गई. उस के बाद जब वैष्णवी को होश आया तो वह खाली हाथ हो चुकी थी.

वैष्णवी ग़ज़ब की खूबसूरत लड़की थी. व्योम तो देखते ही उस पर रीझ गया था. व्योम भी पहली ही निगाह में वैष्णवी के दिल में उतर गया था.

लंबा कद, गोरा रंग, कर्ली बाल और प्रतिष्ठित मल्टीनैशनल कंपनी में आकर्षक सालाना पैकेज… किसी लड़की को भला और क्या चाहिए सहेलियों के बीच ईर्ष्या का पात्र बनने के लिए. अपने समय पर इतराती वैष्णवी आसमान में उड़ी जा रही थी. लेकिन समय कोई किताब तो नहीं जिसे पृष्ठ दर पृष्ठ पढ़ कर उस का सार निकाल लिया जाए. या किसी दूसरे का पढ़ कर अपने वाले की समीक्षा कर ली जाए. यह तो बंद लिफाफा सा होता है जिस के भीतर की चिट्ठी पहले कोई नहीं पढ़ सकता. वैष्णवी को भी कहां अंदेशा था कि उस के समय चिट्ठी इतनी कोरी और सफेद निकलेगी. पति को खो चुकी वैष्णवी के लिए एक ही रात में लोगों का नजरिया बदल गया.

‘बेटीबेटी’ कह कर न अघाने वाले सासससुर के लिए वह अब अपशगुनी हो चुकी थी. सास ने तो यहां तक कह दिया था कि ‘काश, व्योम की जगह यही चली जाती. इस की मां के तो एक बेटी और भी है, लेकिन मेरा बेटा तो इकलौता था.’

बातें हवा की तरह होती हैं. चाहे कितने भी दबे स्वरों में की जाएं, एक छोर से दूसरे छोर तक पहुंच ही जाती हैं. ये भी पहुंच गईं. वैष्णवी ने सुना तो टूटे हुए कलेजे के कुछ और टुकड़े हो गए. तेरहवीं के क्रियाकर्म के बाद उसे मांपापा अपने साथ ले आए. सास ने तो जाती हुई के सिर पर स्नेह का हाथ तक न रखा. ससुर जरूर दरवाजे तक विदा करने आए थे.

‘आती रहना, तुम्हारा ही घर है’, ससुर ने देहरी लांघते समय कहा था. सब जानते थे कि इस तरह के औपचारिक वाक्य महज दुनियादारी निभाने के लिए ही कहे-बोले जाते हैं. वैष्णवी ने भी हामी में गरदन हिलाते हुए भारी मन से विदा ली, कभी वापस न आने के लिए. पांव एक बार तो देहरी पर ठिठके भी थे. यही वह दहलीज थी जिस पर उस ने मेहंदी लगे पांवों से चावलों से भरे कलश को ठोकर मार कर भीतर प्रवेश किया था.

यादें गाड़ी के शीशे पर जमी गर्द की तरह होती हैं. आगे बढ़ने के लिए रास्ते का साफ़ दिखना जरूरी होता है और रास्ता साफ़ दिखे, इस के लिए शीशे पर जमी गर्द पोंछनी ही पड़ती है. वैष्णवी ने भी अपने भविष्य के बारे में सोच कर आगे बढ़ने का फैसला कर लिया.

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