पीहर के जादू में बंधी सुमि पहली बार पीहर पहुंची तो वहां वह न चैन से सो सकी, न हंस या रो ही सकी. वहां हरकोई बदलाबदला सा नजर आने लगा था...
सुमि पहली बार पीहर जा रही थी. उस का मन जैसे कहीं टिक ही नहीं रहा था. जाने क्या बैचेनी सी होने लगी थी कि कहीं कुछ करने लगती तो गुदगुदी सी होने लगती. सुमि को पहली बार पीहर में रहने का वह अनोखा आनंद लेना था, जिस के बारे में वह फिलहाल सोच ही रही थी.
बिलकुल वैसे ही जैसे उस की बूआ प्रफुल्लित और आनंदित हो जाती थीं जबजब वे पीहर आती थीं. सुमि घर पर सब चीजों पर गौर करती रहती और दादी मां और मम्मी का हाथ बंटाया करती थी. दादी उन तैयारियों के दौरान हमेशा एक किस्सा जरूर सुनाती थीं. जब बूआ का विवाह हुआ तो उन को दिल्ली में 7-8 महीने बहुत ही सघन इलाके में रहना पड़ा. बूआ को आदत थी खेतखलिहान, बागबगीचे की.
दादी को जब बूआ ने पत्र लिखा कि वे पीहर आ रही हैं तो यह खबर पा कर वह उसी पल से मां के साथ गजब उत्साह में तैयारी करने लगीं. एक पूरी क्यारी हरे खुशबूदार पुदीने की ही तैयार की गई ताकि बूआ को सुबहशाम बिना नागा चटनी मिल सके. पापड़, चिप्स, सब ताजा तैयार किए गए. बूआ जब आईं तब से लौटने तक वे नाश्ता हो या लंच या चाय, लस्सी बस बाहर हरी घास पर ही बैठतीं और मजे से पूरा आनंद लेती थीं.
जब सुमि ने होश संभाला तब से उस ने बूआ को बहुत ही मजेदार पाया. अब बूआ की प्रतीक्षा करने वाले 3 हो गए. सुमि अपनी मां और दादी के साथ जो भी मदद हो सकती थी करती और बूआ के इंतजार में राह देखती रहती. ऐसे ही सुमि का बचपन गुजर गया.