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जिस  सुबह गुस्से से भरी शिवानी अपनी ससुराल छोड़ कर मायके रहने चली आई, उस से पिछली रात उस का अपने पति राकेश से जबरदस्त झगड़ा हुआ था.

‘‘रात को 11 बजे तुम पार्टी में गुलछर्रे उड़ा कर घर लौटो, यह मुझे मंजूर नहीं. आगे से तुम औफिस की किसी पार्टी में शामिल नहीं होगी,’’ शिवानी के घर में कदम रखते ही राकेश गुस्से में फट पड़ा था.

‘‘मेरे नए बौस ने अपनी प्रमोशन की पार्टी दी थी. मैं उस में शामिल होने से कैसे इनकार कर सकती थी?’’ शिवानी का अच्छाखासा मूड फौरन खराब हो गया.

‘‘इस बारे में मैं कोई बहस नहीं करना चाहता हूं.’’

‘‘जो संभव नहीं, उस काम को करने की हामी मैं भी नहीं भर सकती हूं.’’

‘‘अगर ऐसी बात है, तो नौकरी छोड़ दो.’’

‘‘बेकार की बात मत करो, राकेश. 75 हजार रुपये वाली नौकरी न आसानी से मिलती है और न किसी के कहने भर से छोड़ी जाती है.’’

‘‘तुम्हारे, 75 हजार से कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण मोहित की उचित परवरिश है, घर की सुखशांति है. इन की बलि चढ़ा कर तुम्हें नौकरी करने की इजाजत नहीं मिलेगी,’’ राकेश का गुस्सा पलपल बढ़ता जा रहा था.

‘‘मोहित के उज्ज्वल भविष्य व घर की सुखसुविधा की आज हर चीज मौजूद है. हमारे सुखद व सुरक्षित भविष्य के लिए समाज में मानसम्मान से जीने के लिए क्या मेरा नौकरी करते रहना जरूरी नहीं है?’’

‘‘यों डींगें मार कर तुम मुझे अपने से कम कमाने का ताना मत दो. सिर्फ अपनी कमाई के बल पर भी मैं मोहित को और तुम्हें इज्जत व सुख से भरी जिंदगी उपलब्ध करा सकता हूं,’’ शिवानी को गुस्से से घूरते हुए राकेश ने दलील दी.

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