लेखिका- डा. उषा अग्रवाल

बचपन से ही मैं बहुत नकचढ़ी व सिरफिरी थी. परंतु मेरी बेटी इस के एकदम विपरीत स्वभाव वाली थी. आज मेरी बेटी अनन्या के स्कूल में वार्षिकोत्सव था. वह अब तक स्कूल से वापस नहीं आई थी. अपनी लाडली की प्रतीक्षा में आतुर मेरा मन अब सशंकित हो चुका था. अब तक तो उसे अपनी गुलाबी स्कूटी पर स्कूलबैग लटकाए, पुरस्कारों के साथ वापस आ जाना चाहिए था. अंधेरा भी घिरने लगा था. पता नहीं दोस्तों में अटक गई या फिर...मैं चिंता में डूब गई थी. आज के अनाचारी तो रात की भी प्रतीक्षा नहीं करते. अब तो दिनदहाड़े दुराचार की घटनाएं होने लगी हैं.

अचानक दरवाजा हवा के झोंके से खुल गया और उस के साथ ही सुनाई दी मेरी लाडली की कातर चीख. क्या हुआ? क्या हो गया मेरी लाडली को और फिर वह हृदयविदारक दृश्य. चारों ओर बिखरे पारितोषिकों से घिरी, फर्श पर बैठी मेरी हंसमुख कली जोरजोर से सिसकियां भर रही थी. यह क्या? इस का शरीर इस मोटी चादर में क्यों? चादर का कोना जरा सा छुआ तो वह चिहुंक उठी.

‘‘ममा, ममा, आज अंकल न होते तो आप की यह अनन्या आप की आंखों की किरकिरी बन जाती. मैं मर जाती ममा. अब भी मर जाना चाहती हूं. वे घिनौने स्पर्श...’’

होश उड़ गए मेरे. किसी तरह उस ने अपने को संभाला, ‘‘ममा...जरा गाउन... यह चादर...बाहर अंकल...’’ उस की जबान अटक रही थी. जैसे ही उस ने चादर उतारी तो तारतार गुलाबी कुर्ती सिर्फ कंधे से अटकी रह गई. मैं लड़खड़ाई. उसी ने संभाला. मैं बाहर भागी...

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