एक कारण हो तो बताऊं कि अमेरिका मुझे क्यों पसंद नहीं? सब से बड़ा कारण तो यह है कि वहां यत्रतत्र थूकने की स्वाधीनता बिलकुल भी नहीं है. जितना प्रतिष्ठित भारतीय व्यंग्य लेखक होगा उस की स्वयं को स्वच्छ और स्वस्थ बनाए रखने की उतनी ही पुरानी आदत होगी.
भारत के अधिकांश वंचितजन इस रोग से ग्रस्त रहते हैं. अमेरिका जाते भी वही हैं जो मूलत: वंचितों की श्रेणी में आते हैं. अर्थ से वंचित या किसी न किसी ऊंची या तकनीकी शिक्षा से वंचित. अब वे क्योंकि शुद्ध भारतीय हैं, सो तंबाकू, गुटका या किमाम वाला पान खाए बिना भारतीय होने का गौरव भी नहीं पा सकते.
इन मुखशुद्धिदाता वस्तुओं को खाने के बाद तसल्ली से, अंशों में कई बार लगातार थूकने का आनंद लेना भी जरूरी होता है. इसलिए यत्रतत्र सड़कों की रंगीनियां बढ़ाते चलते हैं. वैसे अमेरिका स्वयं में ही कम रंगीन नहीं. अब सोचने की बात है कि ऐसे अभिजात्य वर्ग वाले व्यक्ति को भारत में कोई भी थूकने से रोक सकता है?
अनेक पार्टियां ऐसे ही कर्मठ कार्यकर्ताओें को अपने दल में प्रवेश देती हैं, जो प्रतिपक्ष को देखते ही मुंह बनाने लगते हैं और बिना एक भी क्षण गंवाए अविराम थूकना शुरू कर देते हैं. श्रेष्ठ योग्यता यह भी होती है कि पूर्व में उन्होंने कई मंचों पर बिना मुखमार्जन किए सफलतापूर्वक थूका हो.
राजनीतिक दल चुनाव लड़ने का टिकट देने के लिए ऐसे जुझारू योद्धा के लिए एक पांव पर खड़े रहते हैं. अमेरिका में भी टिकट पाने की पात्रता ऐसे योग्य नागरिक को तत्काल मिल जाती है किंतु वह टिकट थोड़े अलग तरह का होता है. न जाने कहां से पुलिस वाला सामने अवतरित हो जाता है और पूरे सम्मान सहित उन से कहता है, सर, आप ने यह जो शौर्य दिखाया है उस के प्रतिफलस्वरूप 100 डौलर का सब से नन्हा टिकट स्वीकार करने का कष्ट करें. नम्र रहते हुए ही वह टिकट देता है.