कई महीनों ने गुसलखानों में लाखोंलाख लगा डाले. अब क्या है कि वैसे गुसलखाना जो है वह बाथरूम का अनुवाद है. लेकिन जब अब तक का सब से महंगा 35 लाख का बाथरूम चर्चा में है, उस बेचारे की हैसियत गुसलखाने या स्नानागार की नहीं है.

35 लाख का बाथरूम सुन कर दिल में एक लहर सी उठी है अभी. भैया 35 पैसे का टिकट लगा दो. अपन देख आएंगे और सरकार का राजस्व अर्जन मुफ्त में. जब मुल्क में घपलों का इतना शोर न था, तब माला सिन्हा ने 12 लाख लगा कर बाथरूम बनवाया था. वह सस्ते का जमाना था, इसलिए 12 लाख भी बहुत होते थे. इतने होते थे कि हास्य कविताएं तक बन गई थीं. जैसे- माला सिन्हा की तरह 12 लाख लगा कर बाथरूम बनवाऊं. 12 लाख का बाथरूम फायदा तो न दिला सका, लेकिन कविवर मंचमंच पर चैक दर चैक वसूलते गए.

बाथरूम तो माला सिन्हा के बाद पं. सुखराम का भी चर्चा में रहा. हल्ले बहुत हुए, मगर पटाखा फिस्स. अगर कोई सुधी पाठक यह सोचता है कि अखबारबाजी से मोंटेक सिंह अहलूवालिया के 35 लाख के बाथरूमों का बालबांका हो जाएगा तो गलत सोचता है. आज तक किसी का कुछ हुआ है कि पहली बार कोई चमत्कार होगा? कृपलानी की जीपें, नागरवाला, तेंदूपत्ता, चारा, करोड़ की अटैची... आखिर इंसान किसकिस को याद रखे? हजारों गम हैं दफ्तर के, मुहब्बत के, नूनतेल के, जमाने का ही दर्द तनहा नहीं, हम क्या करें? अब इस शेर पर यह न कहिएगा कि यह क्या उलटपुलट है. शेर तो था कि हजारों गम हैं दुनिया में अपने भी, पराए भी, मुहब्बत ही का गम तनहा नहीं, हम क्या करें? गम तो पन्नेपन्ने, चैनलचैनल पर छाए हुए हैं पर किसे परवाह है कि पुलिस वाले भैया की मोटरसाइकिल में तेल ही न था, अपने स्कूटर पर पीछे बैठा कर लगानी पड़ी रेस, तब जो है सो पुलिस मौका ए वारदात पर पहुंची. खोदने वाली मशीन में डीजल ही खत्म हो गया, दुखियारा पैसे दे तो डीजल लाएं. डीजल लाएं तो मशीन चले. मशीन चले तो खुदाई हो, खुदाई हो तो बोरवैल का मलबा सामने आए. डीजल न हो तो कोई अपनी जेब से डलवाने से रहा. सरकारी काम. पैसा मिला न मिला. परमीशन कहां है? सैंक्शन कहां है? पहले कुरसियों पर आदमी बैठते थे आजकल कुरसियों पर आमतौर पर कुरसियां बैठती हैं. उन के नयन कुरसी, उन के वचन कुरसी, उन का मन कुरसी, उन का तन कुरसी, उन का रोमरोम कुरसी. पता नहीं चलता कि वे कुरसी में समाए हैं या कुरसी उन में समाई है. कुरसी लकड़ी की यानी काठ की. काठ माने ईंधन. संपूर्ण रस सूख गया है. वे जो लचकती शाखें होती थीं, फूलों से लदी हुईं वे अब झोंकने लायक ईंधन में तबदील हो गईं. झोंकने की जगह भट्टी है कि चिता यह पता चलना ही रह जाता है. रह तो जाता है इसे याद रखना भी. याद रहे तो कोई कुरसी 35 लाख के बाथरूम को जस्टिफाई क्यों करे.

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