हमारा घर बन रहा था, गुमानसिंह और रानो नए घर की चौकीदारी भी करते और मजदूरी भी. उन के 3 छोटेछोटे बच्चों के साथ एक कुतिया भी वहीं रहती थी जिसे वे ‘कुकरिया’ के नाम से बुलाते थे. इधर मेरे घर में भी एक पामेरियन पपी ‘पायल’ थी, जब से वह मेरे घर आई तब से मैं कुकरा जाति की बोली, भाषा सीख गई और मुझे इस जाति से लगाव भी हो गया. इन की भावनाएं और सोच भी मनुष्य जैसी होती हैं, यह सब ज्ञान मुझे पायल से मिला इसलिए मैं उसे अपना गुरु भी मानती हूं.
शुरू में पायल कुकरिया को देखते ही भगा देती थी, वह ‘कूंकूं’ कर गुमानसिंह की झोंपड़ी में छिप जाती, लेकिन धीरेधीरे दोनों हिलमिल गए. हमारे घर पहुंचते ही कुकरिया अपने दोनों पंजे आगे फैला कर अपनी गरदन झुका देती और प्यार से वह पांवों में लोट कर अपनी पूंछ हिलाती. मैं अपना थैला उसे दिखा कर कहती, ‘‘हांहां, तेरे लिए भी लाई हूं. चल, पहले मुझे आने तो दे.’’
मैं अपने निर्माणाधीन मकान के पिछवाड़े झोंपड़ी की ओर चल देती. रानो मेरे लिए झटपट खाट बिछा देती. रानो और उस के बच्चे भी कुकरिया के साथ मेरे पास आ कर जमीन पर बैठ जाते. अपनाअपना हिस्सा पा कर बच्चे छीनाझपटी करते, लेकिन पायल अपना अधिकतर हिस्सा छोड़ अपने पापा (मेरे पति) के पास चली जाती. कुकरिया अपना हिस्सा खा कर कभी भी पायल का हिस्सा नहीं खाती थी. बस, गरदन उठा कर पायल की ओर ताकती रहती, मैं 2-3 बार पायल को पुकारती.
‘‘ऐ पायलो, पायलिया...चलो बेटा, मममम खाओ. अच्छा, नहीं आ रही है तो मैं यह भी कुकरिया को दे दूं?’’