पवनपुत्र यानी हनुमान ने ज्योंही समाचारपत्र में पढ़ा कि उन के मंदिर से फोर लेन की सड़क निकलनी है, उन का सिर चकराया. उन के मंदिर को भी चिह्नित किया गया है. उन्हें लगा कि अब यहां से उन का दानापानी उठ गया है. वे सोचने लगे कि भक्तों की दुकानों का क्या होगा? अचानक उन्हें वे दिन याद आ गए जब भक्तों ने इस व्यस्ततम सार्वजनिक स्थल पर भव्य मंदिर का निर्माण करवाया था. भक्तों ने न शासन, प्रशासन की परवा की, न यह सोचा कि इस से आमजन का कितना भला होगा. उन्होंने ही पर्वत के शिखरों पर बसने वाले देवीदेवताओं को शहर के इस व्यस्ततम स्थल पर रहने के लिए मजबूर किया.

वे सच्चे भक्त हैं जिन्होंने भगवान का कृपापात्र बने रहने के लिए मंदिरों के संगसंग निजी आवास, दुकानों, लाजों का निर्माण कराया. आय के स्रोत खोज निकाले, ताकि उन के आराध्य देव को महंगाई में भी भरपूर भोग मिल सके. उन्होंने मंदिर की आड़ में ऐसी शतरंजी चाल चली कि भगवान के साथ भक्त भी स्वर्गीय सुखों का भोग करने लगे. उन्हें न सूखे की चिंता रही न बाढ़ की. उन के आंगन में बहारों ने आशियाना बना लिया. वे बड़े भक्त हैं यह बताने के लिए लाउड- स्पीकर का सहारा लिया. गलीगली प्रचारप्रसार किया जाने लगा.

जो इन की भक्ति के शिकार हुए, लगता है, उन्होंने पानी पीपी कर कोसना शुरू कर दिया. शायद, उन की तिरछी नजर लग गई. मंदिर की सुहानी, मनभावन आड़ में उन का कितना भला हुआ, यह समझने वाले समझ गए. कुछ जान कर अनजान बने रहे.  शायद, उन्हें व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई की लिखी हुई पंक्तियां याद रही हों, ‘दवा भले नकली हो पर शीशी नई होनी चाहिए. अर्थात जो भी करो, जरा आड़ कर लो.’ कुछ भक्तों ने अपनी गृहस्थी, दुकानें चलाने के लिए मंदिरों की आड़ लेना शुरू कर दिया तो कुछ ने सोचा इस में बुरा क्या है? इस में किसी को उंगली नहीं उठानी चाहिए.

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