लेखिका- मीना गुप्ता
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अपनी भाभी राधिका जिन की राजन बहुत इज्जत करता था, एक दिन अपने मन की बात कहते हुए स्वप्न सुंदरी से शादी करने की बात कह दी. भाभी राधिका परेशान थीं कि कहां और कैसे देवर राजन की शादी इतनी खूबसूरत लड़की से कराई जाए.
तब दूर की एक रिश्तेदारी में जिस स्वप्न सुंदरी की तलाश थी वह मिल गई. मगर जब शादी हो कर वह घर आई तो घर का अच्छाभला माहौल बिगड़ने लगा, जबकि राजन इस ओर से अनजान था. सुंदरी काफी खुले विचारों वाली थी.
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घर की नववधू ने रात 9 बजे घर में कदम रखा. साथ में कौन है, बाबूजी ने खिड़की से झांक कर देखना चाहा. सुंदरी उस लड़के के हाथ में हाथ डाले थी. वहीं 2 हाथ खिलखिलाहट के साथ हवा में लहरा गए और खिलखिलाहट की आवाज माहौल में गूंज उठी.
बाबूजी का तनमन कांप उठा. उन्हें अपनी सालों की कमाई दौलत, मानमर्यादा सरेआम बिकती दिखी. झांक कर देखा कितने घरों की खिड़कियां उस दृश्य की साक्षी बनीं. खिड़कियां ही नहीं उन में रहने वाले लोग भी आवाक थे.
दूसरे दिन भी वही घटना दोहराई गई. सुंदरी को छोड़ जब वह जाने लगा तब बाबूजी ने बुला कर कहा, ‘‘बेटा क्या नाम है तुम्हारा?’’
‘‘अनुभव?’’
‘‘लगते तो भले घर के हो, अनुभव तुम सुंदरी को कब से जानते हो?’’
‘‘मैं इस के साथ पढ़ा हूं,’’ कह कर वह जाने लगा तो बाबूजी ने उसे रोकते हुए कहा, ‘‘शायद तुम्हें हमारे घर की मर्यादा नहीं मालूम. तुम्हारा रिश्ता अब सिर्फ सुंदरी से ही नहीं वरन उस के परिवार से भी है. वह तुम्हारी क्लासमेट ही नहीं है, वह किसी की पत्नी भी है और किसी घर की बहू बन चुकी है. इस तरह उस के साथ तुम्हारा आनाजाना ठीक नहीं है.’’
वह बिना कुछ बोले चला गया. सुंदरी अंदर कमरे में आ कर बिफर पड़ी, ‘‘बाबूजी को क्या हो गया है? क्यों बेवजह शोर मचा दिया… कुल की मर्यादा… कुल की मर्यादा… क्या करूं मैं कुल की मर्यादा का… सारा दिन घर में रह कर उसे पालूं? मुझ से नहीं होगा… क्या हुआ जो मेरा दोस्त मुझे घर छोड़ने आ गया?’’
राजन ने समझाया, ‘‘बात दोस्त की नहीं संस्कारों की है… मर्यादा की है. उस ने आ कर किसी से कोई परिचय नहीं करना चाहा… तुम्हें बाय कह कर जाने लगा.’’
‘‘तो क्या हुआ? राजन तुम भी…’’
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धीरेधीरे उस का इस तरह आनाजाना साधारण सी बात हो गई, जिस की चर्चा भी नहीं की जाती.
हद तो तब हुई जब उस सांझ की दुलहन ने सच में रात ढले ही घर में कदम रखने शुरू किए. राजन ने सोचा कब तक बाबूजी की मर्यादा को यों सरेआम कुचलता देखूं. उस ने अलग घर ले लिया.
राजन सारा दिन औफिस में रहता और सुंदरी अपने दोस्तों के साथ. शाम को कभीकभी दोनों एकसाथ ही घर में प्रवेश करते. राजन जान चुका था कि कुछ कहना बेकार है. ऐसा नहीं कि उस ने उस की गलतियों को नजरअंदाज किया. वह जान कर भी अनजान बन जाता था, शायद खुद समझ जाए… उस की हर गलती पर खुद परदा डाल उसे सुधरने का मौका देता.
एक बार तो उस की आंखों के सामने ही सारा खेल हुआ. वह देखता रहा. बस इतना कह सका, ‘‘तुम्हें इस से क्या मिलता है?’’
‘‘वही जो तुम से नहीं मिलता… वह मेरा प्यार है… पहला प्यार…’’
‘‘मुझ से क्या नहीं मिला? तुम जिसे मिलना समझती हो वह मेरे परिवार की मर्यादाओं के खिलाफ है… अगर वह तुम्हारा प्यार है तो तुम ने मुझ से शादी क्यों की?’’
‘‘पापा ने कहा, शादी कर लो… हमारे घर से चली जाओ… फिर जैसी मरजी हो करना.’’
‘‘और तुम अपनी मरजी के कोड़े मुझ पर बरसा रही हो,’’ पहली बार चीखा राजन.
‘‘हां, क्योंकि तुम से मुझे बांधा गया है.’’
‘‘और तुम बंध नहीं सकीं… यही न?’’
‘‘तो अब तक तुम ने हमें धोखे में रखा था… क्या कमी रखी मैं ने तुम्हें खुश रखने में? सपनों की मलिका बना कर लाया था तुम्हें… सब से अलग भी कर लाया… किनारा कर लिया अपने घर से, अपने परिवार से. फिर भी तुम्हें नहीं जीत सका, शायद कमी मेरी ही थी कि मैं ने तुम्हें बहुत चाहा और यह नहीं जानना चाहा कि तुम्हें मेरी कितनी जरूरत है.’’
‘‘हां, मुझे तुम्हारी जरूरत नहीं… मैं तुम्हारे साथ तुम्हारी नहीं अपनी मरजी और शर्तों पर रह सकती हूं… तुम से पहले मेरे लिए अनुभव… मैं उस के बिना अपने एक पल की भी कल्पना नहीं कर सकती,’’ वह जोरजोर से चिल्ला रही थी.
राजन फिर भी नहीं हारा था. कई बार घर नहीं जाता. राधिका के पास चला जाता.
मगर सुंदरी यह भी जानने की कोशिश नहीं करती कि वह कहां है? उस दिन भी वह औफिस से सीधा राधिका के पास गया और फफक पड़ा.
‘‘क्या हुआ देवरजी?’’
‘‘उस ने सारी बात बता दी फिर बोला, भाभी अब आप ही कोई रास्ता निकालो.’’
‘‘क्या रास्ता निकालें देवरजी? मरजी आप की थी… हम लोग तो सिर्फ माध्यम बने थे आप की इच्छाओं के चलते… और मेरी आशंकाओं पर सभी ने आपत्ति जताई थी कि राजन सब संभाल लेगा.’’
‘‘हां भाभी, गलती मेरी थी. मेरी कल्पना सुंदर थी तो कोमल भी थी… इसलिए जल्दी टूट गई… वह तो बहुत कठोर है… जिस कल्पना सुंदरी को मैं हकीकत बना कर ला रहा हूं वह ऐसी होगी कि मेरी कल्पनाओं को ही निगल जाएगी, ऐसा तो मैं ने सोचा ही नहीं था. अगर कल्पना करना गुनाह था तो मेरा जुर्म सच में बहुत बड़ा है और मुझे उस की सजा मिल रही है. मेरी आंखों के सामने ही सब कुछ हो रहा है और मैं तमाशबीन बना हुआ हूं. उस के हर गुनाह का मैं एक ऐसा चश्मदीद गवाह हूं जिसे किसी भी अदालत में जा कर यह कहने की हिम्मत नहीं है कि मेरे घर में गुनाह पल रहा है. अब तो स्थिति यह है कि वे दोनों मेरे कमरे से लगी दीवार के पीछे होते हैं… मैं दीवारों के पार के दृश्य की कल्पना से कांप जाता हूं.’’
‘‘तो क्या आप यों ही देखते रहेंगे?’’
‘‘नहीं भाभी. मगर मैं करूं भी तो क्या?’’
‘‘बाहर करो देवरजी… जब घर की इज्जत खुद ही बाजार में बैठ जाए तो फिर उसे घर में रखना ठीक नहीं… उसे बिकना मंजूर है… आप क्या कर सकते हैं? मर्यादा की खातिर ही आप घर छोड़ कर गए थे कि लोगों की नजरों से दूर रहने पर बिगड़ी बात बन जाएगी, लेकिन…. मेरा कहा मानो तलाक ले लो.’’
‘‘लेकिन भाभी…’’
‘‘कोई लेकिनवेकिन नहीं… जब जिंदगी तुम से इतनी कुरबानियों के बाद भी खुश नहीं तो बेहतर है ऐसी जिंदगी से किनारा कर लो… आज तुम्हारे पास एक अच्छी नौकरी है, बंगला है, गाड़ी है सब कुछ है, तो फिर क्यों उस अप्सरा के पीछे भाग रहे हो? वह तुम्हारी नहीं… फिर उस ने खुद ही कह दिया है… खुद को कमजोर मत साबित करो देवरजी. रास्ते अनेक हैं, जिस मोड़ पर तुम खड़े हो उस से अनेक रास्ते जा रहे हैं और वह रास्ता भी जिस से तुम चले थे. अब एक ऐसी राह लो जहां से बीती गलियां नजर ही न आएं… छोड़ दो देवरजी उसे… छोड़ दो… अप्सरा किसी की नहीं होती… सब की हो कर भी किसी की नहीं हो पाती.’’
राजन फूटफूट कर रो पड़ा था. राधिका रो तो न सकी, मगर उस के लिए रास्ते की तलाश में जरूर निकल पड़ी.
आज वह निर्णय कर के रहेगा. इस हिम्मत के साथ वह घर में घुसा और जोर से दरवाजा पीटने लगा. दरवाजा सुंदरी ने खोला, ‘‘क्या हुआ? इतनी जोर से दरवाजा क्यों पीट रहे हो?’’
‘‘अब यह यहां नहीं होगा… मेरे घर में यह खेल अब नहीं होगा…’’
‘‘कौन सा नया पाठ पढ़ कर आए हो? यह कौन सी नई बात है?’’
सुंदरी को किनारे धकेलते हुए वह अंदर घुसा और अनुभव की कौलर पकड़ कर उसे घर से बाहर कर दिया.
सुंदरी पागलों की तरह चीखती रही. आज वह जान चुकी थी कि उसे अब किसी एक को थामना होगा. शाम को जब राजन घर आया तो वह जा चुकी थी. अपने प्रेमी अनुभव के साथ. घर में अब सिर्फ वह था और उस की रोतीसिसकती कामनाएं. कल्पनाएं, जिन्हें वह शाम तक बटोरता रहा.
तलाक के वक्त कोर्ट में इतना ही कह सका था, ‘‘मैं इस के लायक नहीं. यह जिसे चाहती है उस के साथ इसे रहने और जीने का पूरा हक है… यह हक इस के मांबाप नहीं दे सके, मगर मैं देता हूं… यह आजाद है.’’
तलाक हुए काफी अरसा हो गया था. राधिका ने कई बार देवर का मन टटोला, जानना चाहा कि वहां अब क्या चल रहा है. राजन कभीकभी कह भी देता, ‘‘भाभी अब नहीं…’’
कल्पना का कटुसत्य जिंदगी में जो कड़वाहट पैदा कर गया था उसे वह भूल नहीं पा रहा था. उस दर्द को भुलाने का एक ही रास्ता था, जो राधिका ने बताया.
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‘‘देवरजी दूसरी शादी करिए और अपनी गृहस्थी बसाइए… वह तो अपनी जिंदगी मजे से जी रही है. फिर आप ने ऐसी जिंदगी क्यों अपना ली?’’
‘‘जिंदगी को मैं ने नहीं जिंदगी ने मुझे कुबूल किया है… उसे मैं इसी रूप में अच्छा लगता हूं.’’
‘‘ऐसा नहीं… आप जिसे जिंदगी कह रहे हैं वह ओढ़ी हुई जिंदगी है और यह आप ने सुंदरी के जाने के बाद ओढ़ी है. इसे उतार फेंकने की कोशिश ही नहीं की आप ने… जिस लाश को आप ढो रहे हैं उस से बदबू पैदा हो रही है… उतार फेंको उसे वरना उस की गंध आसपास फैल कर आप को सब से दूर कर देगी… अभी मौका है नई जिंदगी की शुरुआत करने का.’’
राधिका भाभी के लफ्ज उस के जेहन में रात भर गूंजते रहे. राजन सुंदरी को मन से निकाल नहीं पाया था. दूसरी का खयाल कैसे करे? वह सोच में पड़ गया कि क्या भाभी की बात मान कर दूसरी शादी कर ले… नहीं, नहीं, कहीं वह भी. वह भी ऐसी ही निकली तो? लेकिन भाभी ने जो कहा क्या वह सच है? वह सब से दूर जा रहा है? कितनी कातर दृष्टि से भाभी ने मुझे निहारा था और कहा था कि आप की खुशियों की खातिर हम ने सारे समझौते किए थे, लेकिन अब इस बार हमारी मरजी से फैसला लें… ऐसी लाएं जो समझदार हो, शालीन हो. क्या भाभी की तरह कोई मिल सकती है?
राजन ने अलसाई आंखों में ही सवेरा देखा और फिर अपने उजड़े घर पर ताला डाल कर घर पहुंच गया.
राधिका भाभी उस समय बाबूजी को सुबह की चाय दे रही थी. राजन को इतनी सुबह आता देख शंका से भर उठीं, ‘‘क्या हुआ देवरजी… आज इतनी सुबह?’’
‘‘हां भाभी, बहुत दिनों से सुबह की चाय आप के साथ नहीं पी न, इसलिए चला आया. छुट्टी है आज… सोचा थोड़ी देर बाबूजी से भी बातें हो जाएंगी.’’
राधिका ने राजन को बहुत दिनों बाद बदला पाया. पहले जब भी आता परेशान सा रहता. चाय का एक कप उसे पकड़ाया और खुद भी पास रखी कुरसी को और पास ला कर बैठ गईं. बोलीं, ‘‘चलिए अच्छा है… मैं आप को कई दिनों से याद कर रही थी.’’
बाबूजी ने भी कहा, ‘‘चलो अच्छा है… वैसे भी अब तुम उस घर में अकेले रह कर क्या करोगे. आ जाओ यहीं शिब्बू भी अकसर बाहर ही रहता है… राधिका अकेली बोर होती है.’
‘‘नहीं बाबूजी, मैं उस सुंदरी के कारण आप को बहुत चोट पहुंचा चुका हूं… मुझे सजा मिलनी ही चाहिए.’’
‘‘नहीं देवरजी, आप अपनी मरजी से नहीं गए थे… आप को उस की मरजी की खातिर जाना पड़ा था, जिसे आप बेहद प्यार करते थे और बेहतर भी यही था… लेकिन इस घर के दरवाजे आप के लिए खुले हैं… बाबूजी हमेशा रोते और कहते हैं कि मेरा राजन अपनी खातिर नहीं, अपनी मरजी से नहीं उस चुड़ैल की खातिर गया है… वह मेरे बेटे को खा जाएगी बहू. उसे बचा लो,’’ कहते हुए राधिका की आंखें भर आईं.
राजन प्रायश्चित की मुद्रा में जड़ हो चुका था. लड़खड़ाती जबान से यही कह सका, ‘‘भाभी, आप और बाबूजी जैसा चाहें मुझे मंजूर है.’’
राजन के इस निर्णय से राधिका और बाबूजी दोनों खुश हुए. बाबूजी ने सारे
रिश्तेदारों में खबर पहुंचा दी कि राजन ने दूसरी शादी के लिए हां कर दी है.
कई रिश्ते आए. राधिका और बाबूजी ने इस बार किसी भी धोखे की गुंजाइश नहीं रखनी चाही. लड़़की की समझदारी पर अनेक प्रश्न किए जाते और घर आ कर बाबूजी और राधिका घंटों चर्चा करते कि नहीं यह भी समझ में नहीं आ रही. होस्टल वाली तो बिलकुल नहीं चलेगी. घरेलू हो, कुलीन हो… कम पढ़ीलिखी भी चलेगी, लेकिन सलीके वाली हो.
काफी कोशिश के बाद जिस लड़की से रिश्ता तय हुआ वह बेहद पिछड़े इलाके से और गरीब घर की थी और 10वीं कक्षा पास. देखने में साधारण. बात तय कर के आ गए. राजन की हां भर चाहिए थी जो उस ने दे दी.
शादी की तारीख तय हुई. राधिका ने राजन से मजाक किया, ‘‘चलिए, अपनी दुलहन का जोड़ा पसंद कर लीजिए.’’
राजन उदास स्वर में बोला, ‘‘भाभी, आप ही पसंद कर लीजिए… जोड़ी भी आप ही बना रही हैं… पहनावा भी आप ही तय कर लीजिए.’’
इस बार 24 घंटे वाली शहनाई नहीं बजी. बहू ने घर की चौखट पर कदम रखे. चावल का कलश फिर तैयार था. राजन की आंखें भर आईं, सुंदरी की याद में. नई बहू का पैर कलश पर था. उस ने बहुत समझदारी से चावल गिराए. राजन ने समेटे फिर फैलाए फिर समेटे. भाभी मुसकरा रही थीं.
नई बहू ने बहुत दिनों तक सब का दिल जीतना चाहा. समय पर उठ कर घर के काम में राधिका का हाथ भी बंटाती. बाबूजी का भी खयाल रखती.
राजन तो अपने सारे काम खुद कर लेता. इस बार वह बेहद सतर्क था, ‘‘जो भी पूछना हो भाभी से पूछो अनु. वे ही बता सकती हैं.’’
नई बहू की समझदारी थी या पुरानी वाली की कटु यादें बाबूजी और घर के बाकी लोग सभी अनु से खुश थे. उस ने घर में अपनी जगह बना ली थी. राजन पर भी उस ने धीरेधीरे अधिकार कर लिया.
घर की कुछ जिम्मेदारियों को राधिका ने अनु को सौंपने की सोची. फिर एक दिन तिजोरी खोलते हुए कहा, ‘‘राधिका, यह सब तुम्हारा है… इसे संभालो.’’
‘‘अभी बहू नई है. इतनी समझदार नहीं है… कुछ समय दो,’’ बाबूजी ने झिझकते हुए कहा ताकि कहीं राजन को बुरा न लगे.
‘‘जिम्मेदारी ही तो समझदार बनाएगी. फिर मैं भी तो जब इस घर में आई थी तो नई ही थी और अकेली भी… सब संभाला था,’’ यह सुन कर बाबूजी खुश हो उठे.
– क्रमश:
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