‘‘मनु, तू अपनी गाड़ी क्यों नहीं खरीद लेती? बेकार की चिकचिक से बच जाएगी. आजकल सभी कंपनियां ईएमआई की सुविधा देती हैं.’’
‘‘कितनी गाडि़यों की ईएमआई भरूंगी मैं वसु. फिलहाल, घर खर्च से ले कर मकान का किराया सब मेरी पगार से चल रहा है.’’
‘‘क्यों शुभेंदु की पगार भी तो अच्छीखासी होगी. इतने बड़े पद पर हैं?’’
‘‘उन्होंने अपनी कंपनी से रिजाइन कर दिया है. अच्छा अब बहुत हो गई बातें, चल कोल्ड कौफी विद आईसक्रीम ले कर आते हैं. शुभेंदु को बहुत पसंद है. मैं ने अमानत मौल में एक सुंदर सी शर्ट भी देखी है वह भी खरीदनी है मुझे. चल जल्दी कर,’’ वह सहज हो रही थी.
‘‘किस के लिए शर्ट?’’
‘‘शुभेंदु के लिए. खुश हो जाएंगे.’’
‘‘खुश हो जाएंगे मतलब. उन की खुशी का तुझे इतना खयाल है?’’
‘‘और क्या? आखिर वे मेरे पति हैं. मैं उन से प्यार करती हूं,’’ वह खिलखिला रही थी.
‘‘और वह शुभेंदु का गुस्सा,’’ मैं ने उसे याद दिलाया.
‘‘छोड़ यार, रात गई बात गई. शादीशुदा जिंदगी में ये सब चलता ही रहता है.’’
‘‘मगर शुभेंदु ऐसे होंगे, मैं सोच भी नहीं सकती. उन की वे बड़ीबड़ी बातें…’’
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‘‘आजकल शुभेंदु की चिड़चिड़ाहट कुछ ज्यादा ही बढ़ गई है. एक तरफ जौब की परेशानी तो दूसरी तरफ मेरी पै्रगनैंसी. 5 महीने बाद मेरी डिलिवरी है. कहीं न कहीं तो अपना फ्रस्ट्रेशन उतारना ही है न?’’ वह अब भी शुभेंदु का पक्ष ले रही थी.
देखते ही देखते 5 महीने बीत गए. इस बीच मेरा रिश्ता पलाश से तय हो गया. मनु मेरी सगाई पर नहीं आ पाई थी. न ही शुभेंदु आए.
उस दिन उस ने अस्पताल में जुड़वां बच्चों को जन्म दिया था.
नामकरण वाले दिन मैं उस से मिलने गई तो वह फूटफूट कर कर रो पड़ी, ‘‘आज फुरसत मिली तुझे. एक बार आ कर देख तो लेती. तेरी मनु अस्पताल में अकेली किस तरह प्रसवपीड़ा से छटपटा रही थी… और कुछ नहीं तो… कम से कम… मौरल सपोर्ट तो दे ही सकती थी.’’
मैं उस के आंसू पोंछती रही, दिलासा देती रही. थोड़ी शांत हुई तो मैं ने पूछा, ‘‘शुभेंदु कहां थे उस दिन?’’
पति की बात चलते ही उस के चेहरे से भावुकता के भाव एकदम लोप हो गए. पहले से धीमी आवाज को और दबा कर तटस्थ भाव से बोली, ‘‘एक इंटरव्यू के सिलसिले में वरसोवा गए थे. वसु आजकल मार्केट का बुरा हाल है. कामना कर उन्हें नौकरी मिल जाए. अभी तक हम 2 थे. अब साइना और विराम भी आ गए हैं. दिन ब दिन खर्चे बढ़ेंगे. पहले स्कूल, फिर कालेज… फिर शादी.’’
‘‘अरे, इतनी दूर कहां पहुंच गई तू बसु? शुभेंदु उच्च शिक्षित हैं, अनुभवी भी. उन्हें जौब मिल जाएगी.’’
हम बातें कर ही रहे थे कि शुभेंदु हाथ में गरमगरम समोसे की प्लेटें और कलाकंद का डब्बा हाथ में ले कर हाजिर हुए. उन्होंने फरमाइश की, ‘‘वसुधाजी, आप को दूरदर्शन और आकाशवाणी पर बहुत सुना है. आप यहां भी कुछ सुनाइए. खुशी का मौका है?’’
‘‘अभी यहां? न हारमोनियम, न तानपुरा…’’ मैं ने कहा.
‘‘तो क्या हुआ… तभी तो तुम्हारी आवाज अपने असली रूप में आएगी.’’
असली शब्द मेरे मस्तिष्क दिमाग में लगातार वर्षा की बूंदों की तरह टपटप कर उठा था. मनु ने एक बार कहा था कि असलियत क्या है वसु. तुझे इस का एहसास भी नहीं हो सकता.’’
मनु ने भी आग्रह किया तो मैं मना नहीं कर सकी. आंखें बंद कर के एक ठुमरी शुरू कर दी. कमरे में सिर्फ मेरी आवाज थी. उन दोनों की सांसों की भी कोई आवाज वातावरण में नहीं थी. गाना खत्म होने पर शुभेंदु वाहवाह कर उठे थे. अचानक उठ कर उन्होंने मुझे आलिंगन में ले लिया और गालों पर हलका सा एक चुंबन भी अंकित कर दिया. मैं हैरान रह गई. पर उसी समय मनु ने भी शुभेंदु की नकल कर दी. उन की दृष्टि में बात सामान्य हो गई. पर उसी समय मेरे अंतस में एक फांस सी चुभ गई शुभेंदु के प्रति, उन के व्यवहार के प्रति, चरित्र के प्रति.
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कुछ दिनों से मैं महसूस कर रही थी कि मनु जरूरत की चीजें खरीदने के लिए भी अपने हाथ रोक लेती, यहां तक कि बच्चों के खिलौने और कपड़ों की शौपिंग तक भी टाल जाती.
उन दिनों ‘बेबी केयर’ में सेल लगी थी. मैं ने उसे अपने साथ चलने के लिए कहा. सोचा, इसी बहाने से विराम और साइना के लिए कुछ खरीद लूंगी. मनु भी शौपिंग कर लेगी. बच्चों को मैं ने कुछ भी नहीं दिया था.
शुभेंदु नहीं मानेंगे, वह साफ टाल गई.
‘‘पर तू खुद भी तो कमाती है मनु? एटीएम से पैसे निकाल और अपनी मरजी का कुछ भी खरीद ले.’’
‘‘मेरे सारे कार्ड उन के पास हैं. उन से पूछे बिना मैं एक रूमाल तक नहीं खरीदती.’’
‘‘क्यों, मना करते हैं क्या?’’
‘‘नहीं, मुझे लगता है, इस से उन के अहं को संतुष्टि मिलती है.’’
जैसेजैसे शादी की तारीख निकट
आती जा रही थी मेरी मसरूफियत भी बढ़ती जा रही थी. शादी के बाद मैं पलाश के साथ कैलिफोर्निया शिफ्ट होने वाली थी. मां और भाभी मेहमानों की आवभगत की तैयारी में जुटी थीं. कार्डों को छपवाने और बंटवाने का जिम्मा मुझ पर और भैया पर था.
समय कम था, इसलिए अपने निकटस्थ मित्रों, परिजनों को छोड़ कर औरों को औनलाइन कार्ड भेज दिए. मनु से मिले हुए काफी दिन हो गए थे. प्रोजैक्ट के सिलसिले में मुझे 2 दिन के लिए मुंबई भी जाना था. सोचा उन सब से मिलती हुई, कार्ड देती मैं एअरपोर्ट निकल जाऊंगी.
जब घर पहुंची तो मनु अपने कमरे में लेटी थी. उसे तेज बुखार था. बच्चे सो रहे थे. शुभेंदु, ड्राइंगरूम में टीवी देख रहे थे.
मेरा लैपटौप बैग देख कर बोले, ‘‘कहां जाने की तैयारी है?’’
‘‘मुंबई जाना है, उस के बाद 20 दिन का अवकाश,’’ मैं अपने ही खयालों में खोई हुई थी.
‘‘मैं कौफी लाता हूं.’’
‘‘आप बैठिए. मैं बढि़या कौफी बनाती हूं. कह में किचन में चली गई.’’
मैं किचन में जा कर कौफी घोट रही थी कि शुभेंदु ने पीछे से आ कर मुझे अपनी बांहों में घेर लिया. कप और चम्मच हाथ में लिए मेरे दोनों हाथ अपने हाथों में ले कर बोले, ‘‘ऐसे नहीं, ऐसे घोटी जाती है कौफी.’’
उन के मजाक को पूर्णतया हंसी में उड़ा कर उन की बांहों के नीचे से मैं बाहर निकल आई. लेकिन यह शुभेंदु का मजाक नहीं था. उन की आंखों में पहली बार मैं ने कुछ देखा था, जो एक मित्र की आंखों में नहीं, एक पुरुष का स्त्री को देख कर उपजता है.
‘‘शुभेंदु बिहेव योर सैल्फ,’’ मैं उन का बड़प्पन भूल गई. उन के लिए मेरे मन में जो आदरसम्मान की भावना थी वह धुएं की तरह उड़ गई. उस की जगह घृणा पनप उठी. मैं चीख पड़ी, ‘‘मैं सब मनु को बताऊंगी.’’
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लेकिन शुभेंदु ढीठता से हंस रहे थे. मैं अपने मन की उथलपुथल से पिस रही थी. क्या करूं? मनु को सब बता दूं? सुन कर वह सहन भी कर सकेगी. पता नहीं उस की प्रतिक्रिया कैसी होगी. एक अच्छी मित्रता के टूटने का अवसाद दिल पर भारी पड़ने लगा था.
आगे पढें- मनु सब जानती थी. वह…