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आज अरमानों के पूरे होने के दिन थे, स्वप्निल गुलाबी पंखड़ियों सा नरम, खूबसूरत और चमकीला भी, तुहिना और अंकुर की शादी का दिन.

ब्यूटीपार्लर में दुलहन बनती तुहिना बीते वक्त को यादों के गलियारों से गुजरती पार करने लगी.

वे दोनों इंजीनियरिंग फाइनल ईयर में दोस्त बने थे, जब उन दोनों की एक ही कंपनी में नौकरी लगी थी कैंपस प्लेसमैंट में. फिर बातें होनी शुरू हुईं, नई जगह जाना, घर खोजना और एक ही औफिस में जौइन करना. दोनों ने ही औफिस के पास ही पीजी खोजा और फिर जीवन की नई पारी शुरू की.

फिर हर दिन मिलना, औफिस की बातें करना, बौस की शिकायत करना वगैरह. कभीकभी शाम को साथ में नाश्ता करना या सड़क पर घूमना.

धीरेधीरे दोस्ती का स्वरूप बदलने लगा था. अब घरपरिवार की पर्सनल बातें भी शेयर होने लगी थीं. दोनों ही अपने परिवार में इकलौते बच्चे थे और दोनों के ही पिता नौकरीपेशा.

हां, तुहिना की मम्मी भी जहां एक कालेज में पढ़ाती थीं, वहीं अंकुर की मम्मी गांव की सीधी, सरल महिला थीं और वे गांव में ही रहती थीं. अंकुर के पिताजी शहर में अकेले ही रहते थे और अंकुर की छुट्टियां होने पर दोनों साथ ही गांव जाते थे. दोनों 4-5 दिनों के लिए ही जाते और फिर शहर लौट आते.

“तुम्हारी मम्मी साथ क्यों नहीं रहतीं?” तुहिना ने एक मासूम सा सवाल पूछा था.

“दरअसल, गांव में हमारी बहुत प्रोपर्टी है. सैकड़ों एकड़ खेत, खलिहान और गौशाला इत्यादि भी. फिर घर भी बहुत बड़ा है, जैसे पीजी में मैं अभी रह रहा हूं, वैसी तो हमारी गौशाला भी नहीं है. मां वहां रह कर सब की देखभाल करती हैं. सालभर तो एक न एक फसल काटने और रोपने की जिम्मेदारी रहती है. उन सब को कौन देखेगा, यदि मां शहर में आ जाएंगी. हमारे घर आने का तो वे बेसब्री से इंतजार करती हैं. आज भी वे छोटे बच्चे की ही तरह मुझे दुलारती हैं,“ अंकुर ने बताया था.

“अच्छा तो तुम खेतिहर बैक ग्राउंड से हो? मैं ने तो कभी गांव देखा नहीं. हां, मैं ने गांव फिल्मों में जरूर देखा है. दादादादी या नानानानी सब शहर में ही रहे हैं और मेरी अब तक की जिंदगी फ्लैट में ही कटी है,” तुहिना ने विस्फारित नयनों से कहा.

“अच्छा, शादी होने दो तो तुम भी गांव देख लेना, वो भी अपना वाला,” अंकुर ने हंसते हुए कहा, तो तुहिना चौंक गई, “शादी…? क्या तुम मुझे प्रपोज कर रहे हो? इस तरह भला कोई पूछता है?”

तुहिना ने आश्चर्यमिश्रित खुशी से चीखते हुए पूछा.

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“अब मैं ठहरा गांव का गंवई आदमी, मुझे इन बातों की ज्यादा समझ नहीं. पर, मैं बाकी जिंदगी तुम्हारे साथ ही रहना चाहूंगा, क्या हम शादी कर लें?” अंकुर ने तुहिना की हथेली को अपने हाथों में लेते हुए कहा.

ब्यूटीपार्लर में बैठी तुहिना के दिमाग में रील की तरह ये सब घूम रहा था. कितनी आननफानन में फिर सारी बातें तय हो गईं. नौकरी के एक साल होतेहोते दोनों शादी के बंधन में बंधने जा रहे हैं, यह सोच कर तुहिना रोमांचित हो रही थी. दोनों के ही घर वालों को कोई आपत्ति नहीं हुई थी.

तुहिना के मम्मीपापा तो यह सुन कर खुश ही हुए थे कि अंकुर की पृष्ठभूमि इतनी मजबूत है. अंकुर के पिताजी जो पटना में एक बैंक में काम करते थे, तुहिना से मिलने बैंगलुरु चले गए और तुहिना के मातापिता भी उसी वक्त बैंगलुरु जा कर उन लोगों से मिल लिए.

ऐसा लगा मानो सबकुछ पहले से तय हो, बस औपचारिकता पूरी करनी रह गई थी. अब बरात दिल्ली, तुहिना के घर कब आएगी, ये सब तय होना था.

तुहिना के मम्मीपापा जहां डरे हुए थे कि न जाने अंकुर के पिता की क्या मांग हो, कितनी दहेज की इच्छा जाहिर करेंगे, पर हुआ इस के ठीक उलट ही. उन्होंने ऐसी कोई भी मांग या विशेष इच्छा जाहिर नहीं की, बल्कि दो महंगे सेट भारीभरकम जड़ाऊ वाले तुहिना को आशीर्वाद में दिए.

तुहिना का मेकअप अब समाप्तप्रायः ही था, तुहिना ने जल्दी से अपना मोबाइल निकाला और 4-5 सेल्फी ली. बरात में गिनेचुने लोग ही आए थे और शादी में अधिक मेहमान तो तुहिना की ही तरफ के थे. महिलाएं तो एक भी नहीं आई थीं, क्योंकि अंकुर के गांव में महिलाएं बरात में नहीं जाती हैं, ऐसा ही कुछ उस के पिताजी ने बताया था.

शादी खूब अच्छी तरह से संपन्न हुई. विदा हो कर तुहिना उसी होटल में गई, जहां अंकुर के पापा ठहरे हुए थे. मोबाइल पर वीडियो काल पर अंकुर ने अपनी मां से उसे मिलवाया. सचमुच बेहद स्नेहिल दिख रही थीं उस की मां, बारबार उन की आंखें छलक रही थीं.

“मां, अब बस… हम तुम्हारे पास ही तो आ रहे हैं, तुम रोओ मत,“ अंकुर ने उन्हें भावविभोर होते देख कर कहा, तभी उस के पापा आ गए और काल समाप्त हो गई.

अंकुर के पापा बेहद खुश दिख रहे थे. उन्होंने बच्चों के सिर पर हाथ फेरा और एक लिफाफा पकड़ाया.

“लो बच्चो, ये तुम दोनों को मेरी तरफ से शादी का गिफ्ट, यूरोप का 15 दिनों का हनीमून पैकेज. कल सुबह ही निकलना है यहीं दिल्ली से, सो तैयारी कर लो.”

तुहिना और अंकुर आश्चर्यचकित रह गए,

“पर पापा, फिर मां से मिलना कैसे होगा? हम घूमने बाद में भी तो जा सकते हैं,” अंकुर ने आनाकानी करते हुए कहा.

“घूम कर सीधे गांव ही आ जाना. अभी शादी एंजौय करो. गांव में तुम लोग बोर हो जाओगे,” अंकुर के पापा बोले.

इस तरह अंकुर और तुहिना फिर यूरोप टूर पर निकल गए. 15 दिन कैसे गुजर गए, दोनों को पता ही नहीं चला, सबकुछ एक स्वप्न की तरह मानो चल रहा हो. लौट कर दोनों सीधे बैंगलुरु ही चले गए. इस तरह तुहिना अपनी सासू मां से नहीं मिल पाई. तय हुआ कि 2 महीने बाद दीवाली के वक्त गांव चल जाएंगे दोनों.

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2 महीने बाद जब तुहिना पहली बार गांव जा रही थी तो उसे अंदर ही अंदर बहुत घबराहट हो रही थी. जाने कैसी होंगी अंकुर की मां, वहां लोग कैसे होंगे या फिर गांव का घर कैसा होगा. बैंगलुरु से वे लोग पटना पहुंचे और वहां से अंकुर के पापा के साथ वे लोग सड़क मार्ग से गांव की ओर चल दिए. कोई तीन साढ़े तीन घंटों में वे लोग गांव पहुंच गए. रास्ते की हरियाली उस का मन मोह रही थी, बरसात बीत चुकी थी. पेड़पौधे, खेत सब चमकदार हरे परिधान पहन नई दुलहन का मानो स्वागत कर रहे थे.

अंकुर बीचबीच में अपनी मां को बता रहा था कि वे लोग कहां तक पहुंचे या कितनी देर में पहुंच जाएंगे.

रास्ते में पहली बार तुहिना अपने ससुरजी से भी इतनी घुलमिल कर बातें करती जा रही थी. उस के ससुरजी काफी लंबे बलिष्ठ कदकाठी के व्यक्ति थे, जिन पर उम्र अपनी छाप नहीं लगा पाई थी अब तक.

जब कार लंबीचैड़ी बाउंड्री वाल को पार करती हुई एक दरवाजे के सामने जा कर रुकी तो तुहिना हैरान रह गई उस दरवाजे को देख कर.

अर्धगोलकार बड़े से उस नक्काशीदार लकड़ी के दरवाजे के ऊपर महीन काष्ठकारी की हुई थी, दरवाजा तो इतना बड़ा था मानो उस में से हाथी निकल जाए. अवश्य इन दरवाजों का प्रयोग हाथी घुसाने के लिए किया जाता होगा, वह अब तक मुंहबाएं दरवाजे को ही देख रही थी कि अंकुर ने कुहनी मारी. सामने उस की सासू मां खड़ी थीं, आरती का थाल ले कर.

गोल सा चेहरा, गेंहुआ रंगत, मझोला कदकाठी, उलटे पल्ले की गुलाबी रेशमी साड़ी पहनी उस की सासू मां ने उसे सिंदूर का टीका लगाया, बेटेबहू दोनों की आरती उतारी और लुटिया में भरे जल को 3 बार उन के ऊपर वार कर अक्षत के साथ ढेर सारे सिक्के हवा में उछाल दिए.

गांव की मुहानी से कार के पीछेपीछे दुलहन देखने को उत्सुक दौड़ते बच्चे झट उन्हें लूटने लगे. यह तो अच्छा हुआ था कि तुहिना ने आज सलवारकुरती और दुपट्टा पहना हुआ था, वरना बड़ी शर्म आती कि सासू मां सिर पर पल्लू लिए हुए हों और बहू जींसटौप में.

अंकुर ने कुछ भी नहीं बताया था, वह पूछती रह गई थी कि वह क्या पहने, कैसे कपड़े ले कर वह गांव चले.

उस की सासू मां उस से सब नई दुलहन वाले नेग करवा रही थी. जब उस ने अंदर प्रवेश किया तो वह चकित रह गई कि घर कितना बड़ा है. उसे घर नहीं हवेली, कोठी या महल ही कहना चाहिए.

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सारी जिंदगी फ्लैट में रहने वाली तुहिना ने सपने में भी नहीं सोचा था कि उस की ससुराल का घर इतना विशाल होगा. मुख्य दरवाजे को पार कर बड़ा सा दालान था, उस के बाद एक बहुत बड़ा सा आंगन था. आंगन बीचोंबीच था और उस के चारों तरफ कमरे दिखाई दे रहे थे. आंगन और फिर दालान पार कर दो कोनों पर सीढ़ियां दिखाई दे रही थीं, वहीं तीसरे कोने में एक मंदिर था. एक तरफ जहां उसे सिर नवाने के लिए ले जाया गया, वहां उस ने देखा कि सासू मां बाहर ही रुक गईं और ससुर उन दोनों को देवताघर में ले गए.

घर के अंदर इतना सुंदर सा मंदिर, वहां एक पंडितजी भी बैठे हुए थे, जिन्होंने इन दोनों से कुछ पूजा, कुछ रस्म करवाई. फिर सासू मां तुहिना का हाथ पकड़ सीढ़ियों से ऊपर ले जाने लगीं, अंकुर को भी दुलारते हुए वे ले चलीं. तीसरे तले तक पहुंचतेपहुंचते तुहिना हांफ गई थी.

“दुलहन, ये तुम्हारा कमरा है. अब तुम आराम करो.“

कोई उस का सामान वहां पहले ही पहुंचा चुका था. वह कमरा कहने को था, था तो पूरा हाल. शायद महानगरों के बहुमंजिले इमारतों का एक ‘2 बेडरूम फ्लैट’ इस में समा जाए. कमरे से निकली बालकनी, जिस की रेलिंग पर बहुत सुंदर नक्काशीदार काम था. झरोखेनुमा खिड़कियां अलग मन मोह रही थीं.

तुहिना कमरे का मुआयना कर ही रही थी कि उस ने देखा अंकुर मां की गोदी में सिर रख लेट चुका था. मां उस का सिर सहलाते हुए कह रही थीं, “ये घर आज घर लग रहा है, वरना मैं अकेले एक कोने मे पड़ी रहती हूं. वर्षों से रंगरोगन नहीं हुआ था और न ही मरम्मत. जब शादी की खबर मिली, तो मैं ने झट मरम्मत का काम शुरू करवाया, पर इतना बड़ा घर, काम पूरा ही नहीं हुआ.

“मेरी इच्छा थी कि तेरी बहू को मैं साफसुथरे घर में ही उतारूंगी. उस भूतिया हो चुके घर में नहीं. अभी 2 दिन पहले ही तो मजदूरों ने अपने बांसबल्लियां यहां से हटाए हैं. बहू के आने से आज घर में मानो रौनक आ गई.”

“अच्छा तो ये राज है उस अचानक हनीमून पैकेज का,” तुहिना ने मुसकराते हुए सोचा.
फिर अंकुर की मां ने तुहिना को पास बुला कर चाबियों का गुच्छा थमाते हुए कहा, “लो संभालो अपनी जिम्मेदारी, अब मैं थक चुकी हूं. मैं ने वर्षों इंतजार किया कि कब अंकुर की बहू आएगी, जो ये सब घरगृहस्थी संभालेगी.“

उन के ऐसे बोलते ही तुहिना को मानो बिच्छू ने काट लिया. उस ने बेबसी से अंकुर की तरफ देखा. अंकुर ने उस के भाव समझते हुए कहा, “मां, ये बस आप ही संभाल सकती हैं. तुहिना नौकरी करती है, उसे छोड़ वह कहां इन सब झमेलों में रहने आएगी,” अंकुर ने मां को गुच्छा लौटाते हुए कहा.

“अच्छा, जब तक है तब तक तो संभाले, सबकुछ देखेसमझे,” कहती हुई वे चाबियां वहीं छोड़ कर चली गईं.

उस दिन तो थकान उतारने में ही बीत गया. अगले दिन तुहिना हवेली में घूमघूम कर देखने लगी सबकुछ. कौतूहलवश हर झरोखे से झांकती, हर खंबे के पास खड़ी हो सेल्फी लेती, तो कभी बंद दरवाजे की ही खूबसूरती को अपने मोबाइल कैमरे में कैद करती. चाबी के गुच्छे को भी वह हैरानी से देखती. वैसे तालाचाबी तो अब दिखते भी नहीं. कम से कम तुहिना ने तो नहीं ही देखा था. हर कमरे पर बड़ा सा ताला लटका हुआ था. उस बड़े से ताले को देख उसे किसी लटके चेहरे वाले बूढ़े की याद आ रही थी. दीवाली में अभी 2 दिन और थे, पर घर तो उसी दिन से सजा हुआ था, जिस दिन से वे सब आए थे.

अंकुर देर तक सोता रहता और तुहिना को समझ आ रहा था कि अंकुर घर सिर्फ सोने और खाने ही आता है. शायद उसे भी सभी कमरों की कोई जानकारी नहीं थी.

“अंकुर उठो न… मैं बोर हो रही हूं, सुबह के 11 बजने को आए और तुम अभी भी उठ नहीं रहे,” तुहिना ने अंकुर को हिलाने का असफल प्रयास किया. हार कर वह चौके के दरवाजे को पकड़ कर खड़ी हो गई. वहां मम्मी खाना बनाने में बिजी थीं, सब की पसंद के पकवान बन रहे थे.

: मेरे भैया

“जब सब घर आते हैं तभी इस रसोई के भाग जागते हैं, वरना मैं उधर अपने कमरे में ही कुछ पका लेती हूं. अब सीढ़ियां भी तो चढ़ी नहीं जाती हैं. न… न बिटिया, तुम रहने दो, अपने घर पर तो करती ही होंगी, कुछ दिन यहां मेरे हाथ के खाने का स्वाद लो.

“जा बिटिया घूमोफिरो, अपने घर को देखोसमझो… अंकुर तो कभी देखता ही नहीं और न ही उस के बाबा. तुम संभाल लो तो मेरी जिम्मेदारी खतम हो,” तुहिना को हाथ बंटाने के लिए आते देख उन्होंने टोक दिया.

“बेटी, तुम किस्मत वाली हो, जो ऐसे सासससुर मिले तुम्हें,” तुहिना की मां फोन पर उसे बोलती.

आगे पढ़ें- अब तुहिना को वाकई इधरउधर डोलने के सिवा…अब तुहिना को वाकई इधरउधर डोलने के सिवा कोई काम नहीं था. सो, वह अब हर कमरे को खोलखोल कर देखने लगी. हवेली के पिछवाड़े में खलिहान था, जहां शायद फसल कटने पर रखी जाती थी. अनाज की कोठरियां थीं और बड़ा सा गौशाला भी, जहां कई मजदूर लोग थे, जो वहां मौजूद दसियों गायों की देखभाल करते थे.

तुहिना ने सब पता किया, दूध हर दिन विशेष गाड़ी से पटना स्थित एक डेरी फार्म में जाता था और अनाज की बोरियां भी ट्रकों में भर मंडियों मे बिकने जाती थीं. अब तक थैली में दूध खरीदने वाली आश्चर्य से अपनी मिल्कीयत देख रही थी.

एक बात उसे अजीब लगती कि उस की सास अपने पति यानी उस के ससुर से परदा करती थी, जबकि तुहिना को कुछ भी मनाही नहीं थी.

एक दिन तुहिना ने सुबहसुबह देखा था, आंगन में ससुरजी कुरसी पर बैठे थे और सास एक बहीनुमा खाते को खोल कर कुछ बता रही थीं. वह ऊपर तले की मुंडेर से नीचे झांक रही थी, पूरे वक्त उस की सास कुछ समझाने का प्रयास कर रही थीं.

उस ने यह भी देखा कि उन्होंने बहुत सारे रुपए एक पोटली में जो बंधे हुए थे, उन के हाथ में दिए. ससुरजी ने न उसे गिना या ठीक से देखा, उसे फिर से बांध सास के ही हाथ में थमा दिए. वे बिलकुल वैसे ही कर रहे थे, जैसे अंकुर से कुछ जबरदस्ती करवाओ तो करता है. वह हावभाव से समझ रही थी ऊपर से.

दीवाली का दिन था. अंकुर दोपहर में खाना खा कर फिर सो गया था. उस के ससुरजी नीचे पूजा वाले कमरे में थे और तुहिना रसोई के बगल वाले स्टोर रूम में घुस कर संदूकों और बक्सों को खोलखोल कर देख रही थी. बहुत पुरानेपुराने कपड़े थे, कई बक्सों में तो सिर्फ साड़ियां भरी हुई थीं. भारीभारी बनारसी साड़ियां थीं ज्यादातर.

एक लकड़ी की सुंदर सी अलमारी थी, उस में बहुत सारी ब्लैक ऐंड व्हाइट तसवीरें थीं. एक संदूक था, जिसे खोलना तुहिना को आ ही नहीं रहा था. वह दीवाल में लगा हुआ था और उस के दरवाजे पर अंदर घुसा कर खोलने वाले ताले थे.

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चर्रमर्र की आवाज से मम्मी भी वहां आ कर खड़ी हो गई थीं. पहले तो तुहिना को भान ही नहीं हुआ, फिर जब देखा कि वे उसे ही मूक हो देख रही हैं, तो तुहिना थोड़ी झेंप सी गई. क्या सोच रही होंगी वे कि कैसी लड़की है सबकुछ मानो देख ही लेगी. तुहिना झट से हाथ में पकड़ी तसवीर को अलमारी में रखने लगी.

“रुको बहू, मैं खुद तुम्हें इस कमरे में लाना चाह रही थी, पर तुम्हारे ससुरजी राजी नहीं हो रहे थे,“ सासू मां ने कहा, तो वह थम गई.

उस के बाद देर तक वे उसे अलमारी के फोटो दिखाती रहीं, बताती रहीं, सुनाती रहीं. संदूक खोल कर उसे दिखाया, जिस में सोनेचांदी, हीरेमोती के गहने भरे पड़े थे.

एक लाल बनारसी साड़ी उस में से निकाल कर उसे पहना दी और गहनों से लाद दिया ऊपर से नीचे तक.

तुहिना किंकर्तव्यविमूढ़ हो सब करती रही. शाम हो चली थी. उसे ले कर वे पूजाघर में पहुंचा आईं और खुद बाहर जा कर बैठ दीयाबाती की तैयारी करने लगीं.

अंकुर भी कुरतापाजामा में सजीला बन पूजाघर में आ बैठा, पापाजी तो थे ही. देर रात तक पूजा चली, फिर सब ने मां के हाथ के पकवानों को चाव से खाया, मम्मी बारबार आंखें पोंछ रही थीं.

दूसरे दिन सुबह तीनों पटना के लिए निकल पड़े. अंकुर मां के गले लग कर रोने वाला इस बार अकेला नहीं था, तुहिना भी उसी व्यग्रता से रो रही थी.

पापाजी कार में पहले ही जा बैठे थे. लौटते वक्त रास्तेभर शायद ही किसी ने आपस में बातें की होंगी मानो सब गमगीन हों. पर तुहिना अब तक सुन रही थी, गुन रही थी, जो उस दोपहरी मम्मी ने उसे बताया था, “दुलहन ई सब संभाल लो, अब मुझ से नहीं होता है. न… न, ई फोटो को नहीं रखो अंदर. पहले इन्हें ध्यान से देखो, प्रणाम करो इन को. ये ही तुम्हारी सास हैं ‘राधा’, अंकुर को जन्म देने वाली. मैं तो राधा दीदी के मायके से आई अनाथ हूं, जो राधा के संग उस के ब्याह के साथ ही आई थी उस की देखभाल करने. क्या जानती थी कि ऐसा हो जाएगा कि सब चले जाएंगे और मैं ही रह जाऊंगी देखभाल करती हुई सबकुछ. सबकुछ है इस घर में, बस रहने वाले आदमी ही नहीं हैं. अंकुर के पिता भी अकेले थे, उस के दादा भी अकेली संतान ही थे.“

फिर उन्होंने तुहिना को वह बात बताई, जिस से अंकुर भी अनजान है, “अंकुर को जन्म देने के बाद से ही राधा दीदी बीमार रहने लगी थीं. अंकुर के 6 महीने का होतेहोते वे चल बसीं. अब इत्ते बड़े घर में रह गए अंकुर के पापा और दादाजी और नन्हा सा अंकुर. मैं कहां जाती. मैं बच्चे को सीने से लगा कर पालने लगी, जब तक अंकुर के दादाजी रहे, वे कोशिश करते रहे कि मेरी शादी हो जाए, पर न मेरी शादी हुई और न अंकुर के पापा ने दूसरी शादी की.

“हम अंकुर के मांबाप जरूर थे, पर पतिपत्नी नहीं. बचपन में अंकुर यहीं गांव के स्कूल में पढ़ता रहा, फिर कुछ बड़ा होने पर ठाकुर साहब पटना में बैंक की नौकरी करने लगे. कारण, यहां गांव में लोग तरहतरह की बातें करने लगे थे हम दोनों को ले कर.

“फिर अंकुर को आगे अच्छी तालीम भी तो देनी थी, इतना बड़ा आदमी अपना सबकुछ मुझ दाई के हाथों सौंप कर एक छोटी सी नौकरी करने लगा. अंकुर की मां बन मैं यहीं इस घर में रह गई, राधा की अमानत समझ संभालती रही. सुनती भी रही जमाने के जहरीले बोल, ठाकुर साहब तो मुझ से हिसाब भी न पूछते, पर मैं कैसे कुछ गलत करती. आखिर सब मेरे बेटे अंकुर का ही तो है. पर अब अकेलापन हावी होने लगा है, ये सब धनदौलत तुम लोगों का ही है, दुलहन अब संभालो अपनी अमानत.

“अंकुर मुझे मां समझता है, बस यही भरम मेरे जीने के लिए बहुत है. उम्मीद है दुलहन, तुम हमेशा उस की मां को जिंदा रखोगी कम से कम जब तक मैं जिंदा हूं. मत तोड़ना ये भरम,” मम्मी हाथ जोड़ कर कहने लगी थीं.

हक ही नहीं कुछ फर्ज भी

कार पटना एयरपोर्ट पहुंचने को थी, तुहिना को अपना कहा याद आ रहा था, जिसे उसे जल्दी ही पूरा करना भी है, “मां, अब आप अकेली नहीं हैं. आप यहां जितना होता है समेट दें. बहुत काम कर लिया, अब आप अपने बेटेबहू के संग रहेंगी, बस अगले महीने मैं फिर आ कर आप को ले जाऊंगी.”

तुहिना सोच रही थी कि अचानक ध्यान आया कि मम्मी का नाम तो उस ने पूछा ही नहीं, अवश्य उन का नाम ‘अहिल्या’ ही होगा.

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