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रात को 12 बजे फोन की घंटी बजी. श्रीकांत ने फोन उठाया. डा. सहाय थे. मैंटल हौस्पिटल से बोल रहे थे.

‘‘श्रीकांत, एक बुरी खबर है, हेमा नहीं रहीं.’’

‘‘क्या?’’ कुछ घुटती हुई आवाज उन के गले से निकली, फिर गले में ही दब कर रह गई थी.

‘‘हेमा को अचानक फिर से दौरा पड़ा. जब तक नर्स उन्हें संभाल पाती तब तक वे 5वीं मंजिल की खिड़की से छलांग लगा चुकी थीं.’’

हेमा की लाश को मौर्चरी में रखने के लिए कह कर श्रीकांत ने लंबी सांस भरी और शरीर की थकावट दूर करने के लिए बिस्तर पर लेट गए. उन के निवास से मैंटल हौस्पिटल की दूरी लगभग 50 किलोमीटर थी. कशिश और विक्रम आधा घंटा पहले ही अपने घर के लिए निकल गए थे. ड्राइवर भी वापस चला गया था. रात के समय उन्होंने किसी को सूचित कर के बुलाना ठीक नहीं समझा.

पिछले कई दिनों से वे आश्रम के वार्षिकोत्सव की तैयारी, आश्रमवासियों के साथ मिल कर, कर रहे थे. आज का

पूरा दिन थका देने वाला था. देशीविदेशी मेहमानों की आवभगत, गरीब, बेसहारा महिलाओं द्वारा हस्तनिर्मित कपड़ों की प्रदर्शनी और बिक्री का लेखाजोखा तय करतेकरते पूरा दिन कैसे बीत गया, पता ही नहीं चला.

कमर सीधी करने के लिए बिस्तर पर लेटे थे लेकिन शरीर की अकड़न जस की तस बनी हुई थी. आज हेमा इस दुनिया को छोड़ कर चली गई. उस की मौत का जिम्मेदार किसे ठहराएं. श्रीकांत खुद को, मातापिता को या हेमा को, जिस ने महेश की पैबंद लगी गृहस्थी को सीतेसीते अपनी मुट्ठी में इस तरह कैद कर लिया कि वे असहाय हो कर सबकुछ देखते ही नहीं रह गए थे, बल्कि उस तरफ से आंखें ही मूंद ली थीं.

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