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कुछ ही पलों में वह भीड़ में से रास्ता बनाते हुए मेरे पास आ कर धीरे से बोला, ‘‘मैं कल सुबह वापस चला जाऊंगा. तुम चाहो तो अपने पिज्जा का उधार आज चुका सकती हो. याद है न तुम्हारे भैया के साथ...’’

मैं एकदम पिघल सी गई. बड़ी मुश्किल से अपनी रुलाई को छिपा लिया. इस से पहले कि वह मुझे रोता हुआ देख ले, मैं ने सिर झुकाया और पर्स में से अपना कार्ड उसे थमाते हुए कहा, ‘‘जब फुरसत हो, फोन कर लेना. मैं आ जाऊंगी.’’

कुछ सोच कर वह बोला, ‘‘चलो, कौफीहोम में मिलते हैं आधे घंटे बाद. तुम्हें कोई परेशानी तो नहीं, मेरा मतलब घर पर...’’

‘‘न...नहीं,’’ कह कर मैं वहां से चल दी.

मैं कौफी का कप ले कर उसी नीम के पेड़ के नीचे बैठ गई, जहां कभी हम उस के साथ बैठा करते, फिर हम रीगल सिनेमा में पिक्चर देखते और 8 बजे से पहले मैं होस्टल वापस आ जाती. अब न वह रीगल हौल रहा न वे दिन. मैं पुरानी यादों में खोई रही और इतना खो गई कि नरेन के आने का मुझे पता ही न चला.

‘‘मुझे मालूम था, तुम यहीं मिलोगी,’’ मेरे पास आ कर बैठ गया और बोला, ‘‘आज जब से मैं ने तुम को देखा है, बस तुम्हारे ही बारे में सोचता रहा और यह बात मेरे जेहन से उतर नहीं रही कि एमबीए करने के बाद भी तुम इस छोटे से इंस्टिट्यूट में पढ़ाती होगी. मैं तो समझता था कि...’’

‘‘कि किसी बड़े कालेज में पिं्रसिपल रही होंगी या किसी मल्टीनैशनल कंपनी में डायरैक्टर, है न?’’ मैं ने बात काट कर कहा, ‘‘नरेन, जिंदगी वैसी नहीं चलती जैसा हम सोचते हैं.’’

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