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‘‘मम्मी, मौसी कब आएंगी?’’

‘‘बस थोड़ी देर में बेटा, पापा गए हैं लाने.’’

‘‘अब मौसाजी भी हमारे साथ ही रहेंगे जैसे मौसी रहती थीं?’’

‘‘नहीं बेटा सिर्फ 1 रात रुकेंगी. मौसी का बहुत सारा सामान है न यहां. कल वे लोग अपने घर चले जाएंगे बेंगलुरु.’’

‘‘तो फिर मौसी हमारे यहां कभी नहीं आएंगी?’’

‘‘हां बेटा, अब तंग मत करो. जा कर खेलो. मुझे काम करने दो…’’

आकाश अर्चना को लेने स्टेशन पहुंच गए. आज अर्चना आ रही थी. खुशी से सुमन की आंखें गीली हो रही थीं.

महीना भर पहले अर्चना इस घर की एक सामान्य सदस्य थी. जब वह पहली बार यहां आई थी तब भी इतनी तैयारियां नहीं हुई थीं, उस के स्वागत की. लेकिन शादीशुदा होते ही मानो उस का ओहदा बढ़ गया था. छोटी बहन की आवभगत में वह कोई कोरकसर नहीं छोड़ना चाहती थी.

आकाश ने छेड़ा भी था, ‘‘एक दिन के लिए इतनी तैयारी? कोई गणमान्य अतिथि आ रहा है क्या?’’

वह भावुक हो उठी थी, ‘‘अतिथि ही तो हो जाती है, ब्याहता बहन. अब चाह कर भी उसे और नहीं रोक पाऊंगी और न ही पहले की तरह वह जब जी चाहे छुट्टी ले कर मेरे पास आएगी. इस एक रिश्ते ने बरसों के हमारे रिश्ते और अधिकारों की परिभाषा बदल दी. पर जब रोकने का अधिकार था तब मैं ने ही तो उसे घर से निकाल दिया था…’’

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सुमन सुबकने लगी तो आकाश ने प्यार से समझाते हुए कहा, ‘‘देखो, सब ठीक होगा. तुम व्यर्थ अपने को दोषी मानती हो. अब उस के सामने इन सब बातों का जिक्र नहीं करना. उसे प्यार से विदा करना,’’ और फिर तैयार हो कर वे स्टेशन रवाना हो गए.

किंतु सुमन के मन में उथलपुथल सी मची रही. वह सोचने लगी कि यह सब वह अर्चना के प्रति अपने प्रेम के लिए कर रही है या उस ग्लानि से नजात पाने का उस का प्रयास भर है. शायद वह तब भी स्वार्थी हो उठी थी और अब भी यह उस का स्वार्थ ही है, जो वह उसे खुश कर देना चाहती है ताकि उस के पति के सामने उन के गिलेशिकवे न प्रकट हों.

सुमन सोचने लगी कि पता नहीं अर्चना कैसी होगी? शादी से खुश भी है या नहीं? उस की ही जिद के आगे मजबूर हो कर शादी की थी उस ने. कितना लड़ी थी वह उस से. जाने कितने उलाहने ले कर आएगी, अर्ची. पर मिलने की खुशी से उस की नाराजगी पल भर में छूमंतर हो गई.

फिर सुमन की सोच उड़ान भरने लगी… कि उस ने कोई गुनाह तो नहीं किया था. उस का भला ही तो चाहा था. सांसारिक नियमों का पालन करते हुए ही तो उस का विवाह कराया था. माना लड़का उस को पसंद नहीं था, पर उस की जिद के आगे कितने रिश्ते हाथ से निकल गए थे. पढ़ीलिखी एम.ए. पास, सुंदर, स्मार्ट और एक जानीमानी ऐडवर्टाइजिंग फर्म में अच्छी तनख्वाह पाने वाली अर्चना सब को भा जाती पर उसे ही कोई अच्छा नहीं लगता था.

धीरेधीरे अर्चना के अच्छे भविष्य की कामना रखने वाली, सदा ‘अपने जीवन का फैसला खुद करना चाहिए’ का पाठ पढ़ाने वाली, सुमन, अनजाने ही उस की लापरवाह, मस्त, अल्हड़ जिंदगी जीने के अंदाज से चिढ़ने लगी थी. उस की अपनी भी एक जिंदगी थी, जिस की लय बिखर रही थी. बहुत हद तक इस की जिम्मेदार वह अर्चना को मानने लगी थी. कितने समीकरण बने और बिगड़े इस 1 साल में.

आकाश एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में ब्रांचमैनेजर बन कर दिल्ली आ गए. कंपनी की तरफ से फ्लैट, गाड़ी, फोन और तमाम सुविधाएं पा कर बहुत खुश थे दोनों. मिली का दाखिला भी एक अच्छे पब्लिक स्कूल में हो गया. नए घर में दिन मजे में बीत रहे थे.

एक दिन आकाश बोले, ‘‘इतना बड़ा घर कंपनी ने दिया है और हम कुल मिला कर ढाई प्राणी. यहां जौब मार्केट अच्छा है. अर्चना को भी यहीं बुला लेते हैं. उसे भी घर का माहौल मिलेगा और साथ ही तुम्हें भी बहन का साथ मिल जाएगा.’’

आकाश की बातें सुन खुशी से बौरा गई थी. सुमन शादी के इतने बरसों के बाद छोटी बहन का साथ पाने की लालसा से मन गद्गद हो उठा और फिर अगले ही पल उस ने अर्चना को फोन पर सारी बातें बताईं और आने का आग्रह किया.

‘‘थैंक्यू, सो मच दीदी. पर मैं यहां ठीक हूं. जौब अच्छी है. यहां एक रैपो बना हुआ है सब के साथ. वहां फिर से फ्रैश स्टार्ट करना पड़ेगा. आप लोगों को भी परेशानी होगी. मैं यहां सैटल हो गई हूं…’’

पर काफी जोर देने पर वह मान गई. मम्मीपापा सब इस प्रस्ताव से खुश थे. पापा ने कहा, ‘‘वह तुम्हारे साथ रहेगी तो हम चिंतामुक्त रहेंगे. अकेली लड़की घर से इतनी दूर रहती है, सोच कर मन हमेशा आशंकित रहता है.’’

मम्मी ने कहा था, ‘‘उसे कुछ घर के तौरतरीके भी सिखाना. उस के लिए लड़का भी देखना. अब वह अपने पैरों पर भी खड़ी है. एक ही जिम्मेदारी है इस से भी मुक्त हो जाएं.’’

एक महीने बाद ही इस्तीफा दे कर अर्चना अपना सारा सामान समेट कर सुमन के पास आ गई. कुछ दिन तो उस ने नएताजे अनुभव सुनने और हंसने में गुजर गए. लेकिन धीरेधीरे उस के स्वभाव की खामियां जाहिर होने लगीं. अपनी नींद, अपना आराम, अपनी सुविधाओं के साथ जरा सी भी ऐडजस्टमैंट उसे बुरी लगती.

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शुरूशुरू में उस की तमाम हरकतों और नादानियों को दोनों यह सोच कर नजरअंदाज करते रहे कि कम उम्र में परिवार से अलग रहने की वजह से वह आत्मकेंद्रित हो गई है. आखिर होस्टल की जिंदगी जहां पूरी आजादी देती है, वहीं इंसान को अकेला भी तो कर देती है. व्यक्ति जरूरत से ज्यादा आत्मनिर्भर और आत्मकेंद्रित हो जाता है. अपने अच्छेबुरे कर्मों के लिए वह स्वयं जिम्मेदार होता है. सारी तकलीफें, अकेलापन, परेशानियां, खुशियां सब अपने तक रखने की आदत हो जाती है. आखिर घर के लोगों से दूर परायों के बीच आप कितना कुछ बांट पाते हैं?

‘‘देखो, अब तक तो अपनेआप को वही संभाल रही थी न? अब उसे घर के माहौल में ढलने में तो थोड़ा वक्त लगेगा ही.’’

‘‘पर घर से बाहर तो 4-5 सालों से रह रही है. पहले तो घर में ही रहती थी.’’

‘‘तुम्हारी शादी के समय वह 15 साल की थी. मम्मीपापा की लाडली रही है. तुम खुद को परेशान मत करो.’’

किंतु, अपनी ही बहन का अजनबियों सा व्यवहार उसे सालने लगा था कि कल तक जिस बहन की काबिलीयत पर उसे इतना गुमान था, जिस की छोटीछोटी उपलब्धियां भी बड़ी लगती थीं, अब उसी लाडली बहन में उसे सौ खोट दिखाई देने लगे थे.

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