लेखिका- शकीला एस. हुसैन
जुबेदा पढ़ीलिखी थी, सब समझती थी, पर इमरान की बेइंतहा मुहब्बत पा कर खुश थी. सास की जलीकटी चुपचाप सह लेती. कभी बात न बढ़ाती. रूना भाभी का व्यवहार ठीक ही था पर वे भी उस की नौकरी और खूबसूरती से खार खाती थीं. सुभान उसे खर्चे के सीमित पैसे देता था, इसलिए भी उसे चिढ़ होती थी.
पिछले कुछ दिनों से अम्मां ने एक नया मसला खड़ा कर दिया था कि शादी को 2 साल हो गए. अभी तक बच्चा नहीं हुआ. इस में जुबेदा का कोई कुसूर न था, पर उसे उलटीसीधी बातें सुननी पड़तीं कि बच्चे बिना औरत लकड़ी के ठूंठ जैसी होती है, न फूल लगने हैं न फल. ऐसी औरतें घर के लिए मनहूस होती हैं. रूना को देखो 5 साल में 2 बच्चे हो गए. घर में कैसी रौनक लगी रहती है.
वैसे बच्चे संभालने में कोई कभी मदद न करतीं. कभी थोड़ीबहुत सिलाई कर देतीं या फिर बेटों की फरमाइश पर कुछ पका देतीं. बाकी का वक्त महल्ले की खबरों में चला जाता. सब को सलाहें देने में और टीकाटिप्पणी करने में सब से आगे.
अम्मां की बातें सुन कर इमरान जुबेदा के साथ डाक्टर के पास गया. दोनों को पूरी तरह जांच करने के बाद डाक्टर ने कहा, ‘‘दोनों एकदम ठीक हैं. कोई खराबी नहीं है. औलाद हो जाएगी.’’
इमरान ने आ कर अम्मां को सब बता दिया और कहा, ‘‘अब आप औलाद को ले कर परेशान न होना. जब होना होगा बच्चा हो जाएगा. अब आप सब्र से बैठें और हां जुबेदा को भी कुछ कहने की जरूरत नहीं है. सब समय पर छोड़ दीजिए.’’
1-2 महीने अम्मां शांत रहीं, फिर एक नया राग शुरू कर दिया कि ‘करामात पीर’ के पास जाना पड़ेगा. उस पीर का एक एजेंट अकसर अम्मां के पास आ फटकता और उन्हें अपने हिसाब से ऊंचनीच समझाना शुरू कर देता. हर बार अम्मां की अंटी कुछ हलकी हो जाती. अम्मां बोलती रहीं पर जुबेदा ने ध्यान न दिया. अनसुनी करती रही.
उस दिन छुट्टी थी. सब घर पर ही थे. नाश्ते के बाद लान में बैठे बातें कर रहे थे कि तभी अम्मां कहने लगीं, ‘‘चलो जुबेदा तैयार हो जाओ. आज हम करामात पीरबाबा के पास जाएंगे. बहुत दिन झेल ली तुम्हारी बेऔलादी… वे एक ताबीज देंगे और पढ़ कर फूकेंगे कि तुम्हारी गोद में बच्चा आ जाएगा. आज तुम्हें चलना पड़ेगा.’’
जुबेदा ने धीरे से कहा, ‘‘अम्मां मैं इन बातों पर यकीन नहीं रखती और यह तो कतई नहीं मानती कि पीरबाबा की फूंक और ताबीज से बच्चे हो जाते हैं.’’
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यह सुन कर अम्मां का पारा चढ़ गया. गुस्से से बोलीं, ‘‘यही तो बुराई है इन पढ़ीलिखी लड़कियों में. ये पीरबाबाओं पर यकीन नहीं रखतीं. पड़ोस की सकीना की बहू पीरबाबा के पास गई थी. 2 महीने से उम्मीद से है और सलामत की बेटी को 5 साल से बच्चा न था. उस की भी गोद भर गई. बाबा की एक और करामात है कि ऐसा पढ़ कर फूंकते हैं कि बेटा ही होता है. चलो, तुम्हारी गोद भी हरी हो जाएगी.’’
जुबेदा ने मजबूत लहजे में कहा, ‘‘अम्मां जब मुझे इन बातों पर यकीन ही नहीं है, तो मैं बाबा के पास क्यों जाऊं? ये सब झूठ है. मुझे समय पर भरोसा है… आप के कहने से सारे टैस्ट करवा लिए. सब ठीक है पर मैं करामात बाबा के पास नहीं जाऊंगी, यह मेरा फैसला है.’’
अम्मां ने शिकायती नजरों से इमरान को देखा तो वह बोला, ‘‘अम्मां, मुझे भी इन बातों पर यकीन नहीं है और मैं जुबेदा की मरजी के खिलाफ उस पर जबरदस्ती नहीं करूंगा. वह नहीं जाना चाहती है तो आप न ले जाएं.’’
इस बात पर अम्मां तैश में आ गईं. पूरा घर उन दोनों को छोड़ कर एक हो गया. कई तरह की खोखली दलीलें दे कर समझाने की कोशिश की गई पर वह न मानी और उठ कर अपने कमरे में चली गई. दरवाजा बंद कर लिया. उस की इस हरकत पर पूरा घर उस से नाराज हो गया. कोई उस से बात नहीं करता. ज्यादातर वह स्कूल या अपने कमरे में रहती. एक डेढ़ महीने के बाद घर का माहौल ठीक हुआ. जुबेदा सब्र से सब सह गई. दिन धूपछांव की तरह गुजरते रहे.
कहकशां जब दूध का गिलास ले कर आई तो जुबेदा चौंक कर अपने खयालों से बाहर आई. कहकशां ने जबरदस्ती उसे थोड़ी बै्रड दूध से खिलाई. 2-3 दिन तक रिश्तेदारों के यहां से खाना आता रहा. तीसरे दिन सियूम (मौत का तीसरा दिन तीजा) था उस दिन घर में खाना बनता है और सब रिश्तेदार व दोस्त वहीं खाना खाते हैं. सियूम बहुत शान से किया गया.
सारा दिन जुबेदा को सब के साथ बैठना पड़ा. पूरा वक्त इमरान की मौत का जिक्र, लोगों की बनावटी हमदर्दी, सियूम की तारीफ, शानदार खाना खिलाने पर वाहवाही. जुबेदा का दिल चाह रहा था वह इस माहौल से कहीं दूर भाग जाए.
कहकशां उसे ले कर कमरे में जाने लगी तो सास ने कहा, ‘‘अभी इसे यहीं बैठने दो. आज दिन भर औरतें पुरसा देने (हमदर्दी जताने) आएंगी. इस का यहां रहना जरूरी है.’’
‘‘जुबेदा को चक्कर आ रहा है. वह बैठ नहीं सकती. मुझे उसे लिटाने दीजिए,’’ कह कर उसे कमरे में ले गई.
उस के बाद 1 महीने की फारोहा हुई.
यह खाना करीबी रिश्तेदारों ने पकवा कर कुछ करीबी लोगों को खिलाया. 40-50 लोग हर बार शामिल होते थे. जुबेदा खामोश सब देखती रहती.
कहकशां 4 दिन के बाद चली गई थी. फिर 1 महीना होने पर बहन की मुहब्बत उसे फिर खींच लाई. 1 महीना होने के बाद दूसरे दिन जुबेदा सादे कपड़े पहन कर स्कूल जाने को तैयार हो गई. जैसे ही वह बाहर निकलने लगी सास और फूफी सास ने रोनापीटना शुरू कर दिया, ‘‘यह कैसी बदशगुनी है कि तुम इद्दत पूरी होने से पहले बाहर निकल रही हो.’’
यह सुन कर जेठ और ससुर भी रास्ता रोक कर खड़े हो गए, ‘‘तुम अभी घर से बाहर निकल कर स्कूल नहीं जा सकती. मैं अभी मौलाना साहब को बुलाता हूं, वहीं तुम्हें समझाएंगे.’’
मौलाना साहब आ गए. जबरन जुबेदा को परदे के पीछे बैठा दिया गया. कहकशां भी बेबस सी उस के पास बैठ गई. उन्होंने एक लंबा लैक्चर दिया, जिस का खुलासा यह था, ‘‘साढ़े 4 महीनों तक औरत न किसी गैरमर्द से मिल सकती है न कहीं बाहर जा सकती है और न ही भड़कीले रंगबिरंगे कपड़े पहन सकती है. उसे अपने कमरे में ही रहना होगा.’’
मौलाना साहब की बात सुन कर, तो सासससुर व जेठ सब को जबान मिल गई सब ने एकसाथ बोलना शुरू कर दिया. जुबेदा ने बुलंद आवाज में कहा, ‘‘एक मिनट, मेरी बात सुन लीजिए.’’
कमरे में सन्नाटा छा गया. जुबेदा ने कहा, ‘‘मौलाना साहब, मैं ने दुनिया के जानेमाने आलिम और इसलाम के बहुत बड़े स्कौलर से यूट्यूब पर सवाल किया था कि क्या औरत इद्दत के दौरान कतई बाहर नहीं निकल सकती? तब उन्होंने जो जवाब दिया उसे आप भी सुन लीजिए. उन का जवाब था, ‘‘औरत की अगर कोई मजबूरी है तो वह बाहर जा सकती है. अगर कोई सरकारी या फिर अदालत का काम करना जरूरी है तो भी उसे बाहर जाने की इजाजत है. अगर वह खुद कफील (खुद कमाने वाली) है और बाहर जाना जरूरी है तो वह परदे की एहतियात के साथ घर से निकल सकती है. मजबूरी की हालत में साढ़े 4 महीने की इद्दत पूरी करना जरूरी नहीं है.’’
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आलिम साहब का बयान सुन कर सन्नाटा छा गया. सब चुप हो गए. परदे के पीछे से जुबेदा की आत्मविश्वास से भरी आवाज सुनाई दी, ‘‘आप ने आलिम साहब का फतवा सुन लिया. उन के मुताबिक मैं नौकरी के लिए बाहर जा सकती हूं. यह मेरी जरूरत और मजबूरी है. मैं पहले ही 1 महीने की छुट्टी ले चुकी हूं. अब और नहीं ले
सकती. मेरी सरकारी नौकरी है. मेरा स्कूल लड़कियों का स्कूल है. इसलिए बेपर्दगी का सवाल ही नहीं उठता. आलिम साहब के बयान के मुताबिक मुझे बाहर जाने की व नौकरी करने की इजाजत है.’’
मौलवी साहब व दूसरे लोग इतने बड़े आलिम साहब का विरोध करने का साहस न कर सके. उन लोगों के चुप होते ही बाकी लोगों ने भी हथियार डाल दिए. दूसरे दिन से जुबेदा ने हिजाब के साथ स्कूल जाना शुरू कर दिया. जिंदगी फिर सुकून से गुजरने लगी. जुबेदा अपने काम से काम रखती. ज्यादा वक्त तो उस का स्कूल में गुजर जाता. घर के बाकी लोग भी अपने काम में मसरूफ रहते.
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