‘‘मैं अभी तकलीफ में हूं... बातें करने में असमर्थ हूं. तुम चाहो तो बाद में फोन करूंगा.’’
‘‘सुनो, जरा अपना क्रैडिट कार्ड की लिमिट बढ़वा दो मु झे एक बड़ी स्क्रीन वाला टीवी लेना है और तुम्हारे कार्ड की लिमिट पूरी हो गई है. अब मुंबई जैसे शहर के खर्चे हजार होते हैं तुम क्या सम झोगे? मैं अपनी दोस्त के साथ दुकान गई थी और कार्ड डिक्लाइन हो गया. मु झे बेहद शर्मिंदगी महसूस हुई. तुम्हें मेरी जरा भी फिक्र नहीं है...’’
नयना बोल रही थी और जतिन का दिल छलनी हो रहा था कि उस ने एक बार भी मेरी खैरियत नहीं पूछी. सिर्फ और सिर्फ पैसों का ही नाता रह गया है क्या? चूंकि सारी बातें प्रेरणा के समक्ष ही हो रही थीं, सो उस का भी मन पसीज गया. शाम होतेहोते जतिन के मातापिता ही रायपुर से रांची होते हुए पिपरवार पहुंच गए. उन के आ जाने के बाद प्रेरणा भी थोड़ी निश्चिंत हुई और कालोनी के और लोग भी. जतिन की मां को तो पता ही नहीं था कि उन की नवब्याहता बहू उन के बेटे के साथ न रह कर मुंबई रहने लगी है. बेटे की शादी के बाद उन्हें ज्यादा पूछताछ उन की गृहस्थी में सेंध सरीखी लगती थी. जतिन ने भी घरपरिवार में किसी से इस बात की चर्चा तक नहीं की कि नयना अब उस के साथ नहीं रह रही. यह बात उसे एक तरह से खुद की हार सम झ आती थी और वह इस दर्द को दबाए घुल रहा था.
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