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लखनऊ की पौश कौलोनी गोमतीनगर में स्थित इस पार्क में लोगों की काफी आवाजाही थी. पार्क की एक बैंच पर काफी देर से बैठी मानसी गहन चिंता में लीन थी. शाम के समय पक्षियों का कलरव व बच्चों की धमाचौकड़ी भी उसे विचलित नहीं कर पा रही थी. उस के अंतर्मन की हलचल बाहरी शोर से कहीं ज्यादा तेज व तीखी थी. उसे समझ नहीं आ रहा था कि आखिर उस से गलती कहां हुई है. पति के होते हुए भी उस ने बच्चों को अपने बलबूते पर कड़ी मेहनत कर के बड़ा किया, उन्हें इस काबिल बनाया कि वे खुले आकाश में स्वच्छंद उड़ान भर सकें. पर बच्चों में वक्त के साथ इतना बड़ा बदलाव आ जाएगा, यह वह नहीं जानती थी. बेटा तो बेटा, बेटी भी उस के लिए इतना गलत सोचती है. वह विचारमग्न थी कि कमी आखिर कहां थी, उस की परवरिश में या उस खून में जो बच्चों के पिता की देन था. अब वह क्या करे, कहां जाए?

दिल्ली में अकेली रह रही मानसी को उस का खाली घर काट खाने को दौड़ता था. बेटा सार्थक एक कनैडियन लड़की से शादी कर के हमेशा के लिए कनाडा में बस चुका था. अभी हफ्तेभर पहले लखनऊ में रह रहे बेटीदामाद के पास वह यह सोच कर आई थी कि कुछ ही दिनों के लिए सही, उस का अकेलापन तो दूर होगा. फिर उस की प्रैग्नैंट बेटी को भी थोड़ा सहारा मिल जाएगा, लेकिन पिछली रात 12 बजे प्यास से गला सूखने पर जब वह पानी पीने को उठी तो बेटी और दामाद के कमरे से धीमे स्वर में आ रही आवाज ने उसे ठिठकने पर मजबूर कर दिया, क्योंकि बातचीत का मुद्दा वही थी. ‘यार, तुम्हारी मम्मी यहां से कब जाएंगी? इतने बड़े शहर में अपना खर्च ही चलाना मुश्किल है, ऊपर से इन का खाना और रहना.’ दामाद का झल्लाहट भरा स्वर उसे साफ सुनाई दे रहा था.

‘तुम्हें क्या लगता, मैं इस बात को नहीं समझती, पर मैं ने भी पूरा हिसाब लगा लिया है. जब से मम्मी आई हैं, खाने वाली की छुट्टी कर दी है यह बोल कर कि मां मुझे तुम्हारे हाथ का खाना खाने का मन होता है. चूंकि मम्मी नर्स भी हैं तो बच्चा होने तक और उस के बाद भी मेरी पूरी देखभाल मुफ्त में हो जाएगी. देखा जाए तो उन के खाने का खर्च ही कितना है, 2 रोटी सुबह, 2 रोटी शाम. और हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि उन के पास दौलत की कमी नहीं है. अगर वे हमारे पास सुकून से रहेंगी तो आज नहीं तो कल, उन की सारी दौलत भी हमारी होगी. भाई तो वैसे भी इंडिया वापस नहीं आने वाला,’ कहती हुई बेटी की खनकदार हंसी उस के कानों में पड़ी. उसे लगा वह चक्कर खा कर वहीं गिर पड़ेगी. जैसेतैसे अपनेआप को संभाल कर वह कमरे तक आई थी.

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बेटी और दामाद की हकीकत से रूबरू हो उस का मन बड़ा आहत हुआ. दिल की बेचैनी और छटपटाहट थोड़ी कम हो, इसीलिए शाम होते ही घूमने के बहाने वह घर के पास बने इस पार्क में आ गई थी.

पर यहां आ कर भी उस की बेचैनी बरकरार थी. निगाहें सामने थीं, पर मन में वही ऊहापोह थी. तभी सामने से कुछ दूरी पर लगभग उसी की उम्र के 3-4 व्यक्ति खड़े बातें करते नजर आए. वह आगे कुछ सोचती कि तभी उन में से एक व्यक्ति उस की ओर बढ़ता दिखाई पड़ा. वह पसोपेश में पड़ गई कि क्या करे. अजनबी शहर में अजनबियों की ये जमात. इतनी उम्र की होने के बावजूद उस के मन में यह घबराहट कैसी? अरे, वह कोई किशोरी थोड़े ही है जो कोई उसे छेड़ने चला आएगा? शायद कुछ पूछने आ रहा हो, उस ने अपनेआप को तसल्ली दी. ‘‘हे मनु, तुम यहां कैसे,’’ अचकचा सी गई वह यह चिरपरिचित आवाज सुन कर.

‘‘कौन मनु? माफ कीजिएगा, मैं मानसी, पास ही दिव्या अपार्टमैंट में रहती हूं,’’ हड़बड़ाहट में वह अपने बचपन के नाम को भी भूल गई. आवाज को पहचानने की भी उस की भरसक कोशिश नाकाम ही रही. ‘‘हां, हां, आदरणीय मानसीजी, मैं आप की ही बात कर रहा हूं. आय एम समीर फ्रौम देवास.’’ देवास शब्द सुनते ही जैसे उस की खोई याददाश्त लौट आई. जाने कितने सालों बाद उस ने यह नाम सुना था. जो उस के भीतर हमेशा हर पल मौजूद रहता था. पर समीर को सामने खड़ा देख कर भी वह पहचान नहीं पा रही थी. कारण उस में बहुत बदलाव आ गया था. कहां वह दुबलापतला, मरियल सा दिखने वाला समीर और कहां कुछ उम्रदराज परंतु प्रभावशाली व्यक्तित्व का मालिक यह समीर. उसे बहुत अचरज हुआ और अथाह खुशी भी. अपना घर वाला नाम सुन कर उसे यों लगा, जैसे वह छोटी बच्ची बन गई है.

‘‘अरे, अभी भी नहीं पहचाना,’’ कह कर समीर ने धीरे से उस की बांहों को हिलाया. ‘‘क्यों नहीं, समीर, बिलकुल पहचान लिया.’’

‘‘आओ, तुम्हें अपने दोस्तों से मिलाता हूं,’’ कह कर समीर उसे अपने दोस्तों के पास ले गया. दोस्तों से परिचय होने के बाद मानसी ने कहा, ‘‘अब मुझे घर चलना चाहिए समीर, बहुत देर हो चुकी है.’’ ‘‘ठीक है, अभी तो हम ठीक से बात नहीं कर पाए हैं परंतु कल शाम 4 बजे इसी बैंच पर मिलना. पुरानी यादें ताजा करेंगे और एकदूसरे के बारे में ढेर सारी बातें. आओगी न?’’ समीर ने खुशी से चहकते हुए कहा.

‘‘बिलकुल, पर अभी चलती हूं.’’

घर लौटते वक्त अंधेरा होने लगा था. पर उस का मन खुशी से सराबोर था. उस के थके हुए पैरों को जैसे गति मिल गई थी. उम्र की लाचारी, शरीर की थकान सभीकुछ गायब हो चुका था. इतने समय बाद इस अजनबी शहर में समीर का मिलना उसे किसी तोहफे से कम नहीं लग रहा था. घर पहुंच कर उस ने खाना खाया. रोज की तरह अपने काम निबटाए और बिस्तर पर लेट गई. खुशी के अतिरेक से उस की आंखों की नींद गायब हो चुकी थी. उस के जीवन की किताब का हर पन्ना उस के सामने एकएक कर खुलता जा रहा था, जिस में वह स्पष्ट देख पा रही थी. अपने दोस्त को और उस के साथ बिताए उन मधुर पलों को, जिन्हें वह खुल कर जिया करती थी. बचपन का वह समय जिस में उन का हंसना, रोना, लड़ना, झगड़ना, रूठना, मनाना सब समीर के साथ ही होता था. गुस्से व लड़ाई के दौरान तो वह समीर को उठा कर पटक भी देती थी. दरअसल, वह शरीर से बलिष्ठ थी और समीर दुबलापतला. फिर भी उस के लिए समीर अपने दोस्तों तक से भिड़ जाया करता था.

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