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लेखक- सुशील कुमार भटनागर

ब्लौक शिक्षा अधिकारी के पद पर पदोन्नति के साथ ही मेरा तबादला अजमेर से जयपुर की आमेर पंचायत समिति में हो गया था. मेरे साले साहब जयपुर में रहते हैं. वे यहां के एक बड़े अस्पताल में डाक्टर हैं. पिछले माह मेरे बेटे रंजन को भी उदयपुर से एमबीबीएस करने के बाद चिकित्साधिकारी के पद पर आमेर के ही प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पर प्रथम नियुक्ति मिली थी इसलिए जयपुर में अपने मामा के पास ही रह रहा था वह. मेरे रिटायरमैंट में अभी 2 साल बाकी थे. सोचा, चलो मन को तसल्ली तो रहेगी कि 32 साल सरकार की सेवा करने के बाद कम से कम अधिकारी पद से तो सेवानिवृत्त हुए. मन के किसी कोने में अधिकारी बनने का सपना भी था.

बड़ी बेटी सीमा के पैदा होने के 2 साल बाद रंजन और रंजना जुड़वां बच्चे हुए थे. 6 माह पहले बेटी रंजना के अपनी ससुराल में आत्मदाह कर लेने के बाद दिल और दिमाग को कुछ ऐसा झटका लगा कि शरीर घुल सा गया था मेरा. पत्नी रीना तभी से मेरे पीछे पड़ी थी कि अब मैं स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले लूं. बीमार शरीर को क्यों और बीमार बना रहा हूं. घर में रहूंगा तो आराम मिलेगा और स्वास्थ्य में भी कुछ सुधार ही होगा पर मैं हमेशा यह कह कर टाल देता था कि चलताफिरता रहूंगा तो ठीक रहूंगा और अगर घर में बैठ गया तो रहासहा शरीर भी बेकार हो जाएगा और जल्दी ही प्राण खो बैठूंगा. वह मेरे इस जवाब से चिढ़ जाती थी.

रीना के साथ अपनी कार से जयपुर पहुंचने पर साले साहब को बहुत खुशी हुई थी. रंजन तो पहले से यहां था ही, अब मैं और रीना भी आ गए थे उन के आलीशान बंगले में. साले साहब के 2 ही लड़के थे. बड़ा बेटा शादी कर अमेरिका में सैटल हो गया था और छोटा बेटा एमबीए कर दिल्ली की किसी प्रतिष्ठित कंपनी में मैनेजर हो गया था. घर में बस ये 2 ही प्राणी थे, साले साहब और सलहज साहिबा.

हमें आया देख सलहज साहिबा तो खुशी के मारे जैसे पागल ही हुई जा रही थीं. कार से उतरते ही मेरे हाथ से सूटकेस झपट कर नौकर को पकड़ाते हुए बोली थीं, ‘‘जीजाजी, सच पूछिए तो आप लोगों के आने से मेरा तो जैसे सेरों खून बढ़ गया है. आप लोगों के साथ मेरा मन भी लगा रहेगा. इन्हें और रंजन को तो अपने मरीजों और अस्पताल से ही फुर्सत नहीं मिलती. मैं अकेली पड़ीपड़ी सड़ती रहती हूं घर में. भला अखबार, पत्रिकाओं, टीवी और इंटरनैट से कब तक जी बहलाऊं? मैं तो बोर हो गई इन सब से. अब आप लोग आ गए हैं तो देखना कैसी चहलपहल और रौनक हो जाएगी घर में. खाने और पकाने में भी अब मजा आएगा,’’ कहते हुए वे तेज कदमों से ड्राइंगरूम की ओर बढ़ गईं. यह रात का खाना खा कर मैं सो गया और रीना अपने भैयाभाभी के साथ गपशप में व्यस्त हो गई.

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दूसरे दिन सुबह औफिस बड़े हर्षोल्लास से जौइन किया मैं ने. अभी अपने स्टाफ से मेरा परिचय का सिलसिला चल ही रहा था कि सहसा  मेरी मृत बेटी रंजना की विधवा ननद आरती को देख कर मैं सकपका गया.

आरती किसी मूर्ति की भांति नजरें झुकाए औफिस में आई, हाजिरी रजिस्टर खोल कर अपने हस्ताक्षर किए, एक क्षण अपनी पलकें उठा कर निरीह दृष्टि से मुझे देखा जैसे कह रही हो, ‘किस जुर्म की सजा दे रहे हो हम सब को. हमारा हंसताखेलता घरसंसार उजाड़ दिया तुम ने. आग लगा दी हमारे चमन में. जीतेजी मार डाला हम सब को.’ और फिर सिर झुकाए चुपचाप वहां से चली गई.

उस के जाने के बाद बड़े बाबू ने बताया, ‘‘सर, इस का नाम आरती है. यहीं औफिस के पीछे ही किराए का एक कमरा ले कर रह रही है. बड़ी अभागी है बेचारी. शादी होने के सालभर बाद ही विधवा हो गई. विधवा कोटे में तृतीय श्रेणी अध्यापिका के पद पर 2 वर्ष पहले नियुक्त हुई थी.

‘‘कोई 6 महीने पहले इस की भाभी ने दहेज की मांग, पति और ससुराल वालों की मारपिटाई से तंग आ कर अपने ऊपर मिट्टी का तेल डाल कर आग लगा ली थी और फिर अस्पताल ले जाते समय ही उस ने अपने प्राण त्याग दिए थे. पुलिस केस बन गया था. पुलिस इस के भाई और बूढ़े मातापिता को गिरफ्तार कर ले गई थी.

‘‘आरती अपनी भाभी की मौत का वीभत्स दृश्य नहीं देख सकी थी और बेहोश हो गई थी. 3 दिन बाद तबीयत कुछ सामान्य हुई और अस्पताल से छुट्टी मिली तो पुलिस ने इसे भी गिरफ्तार कर लिया था. आरती के स्कूल स्टाफ ने अच्छा वकील किया और जैसेतैसे कोर्ट से इस की जमानत करवा ली पर आरती के भाई और बूढ़े मातापिता की जमानत की अरजी  दहेज हत्या के गंभीर मामले को देखते हुए जज ने खारिज कर दी. अपने बचाव में बेचारे कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं. आज तक इस के घर वाले जेल की सलाखों के पीछे कैद हैं. आरती भी पुलिस हिरासत में 10 दिन रहने और पुलिस केस होने के कारण सस्पैंड चल रही है. आरती का कहना है कि पुलिस ने झूठा केस बनाया है.

‘‘वैसे सर, आरती के आचरण को देख कर लगता तो नहीं कि ये लोग ऐसा कर सकते हैं. लोगबाग इस के परिवार को भी बड़ा अच्छा समझते हैं. फिर ये सब. न जाने असलियत क्या है?

पुलिस, कोर्ट- कचहरी के चक्करों में कौन पड़ता है नाहक, इसीलिए कोई इन की मदद को भी आगे नहीं आता, बदनामी अलग.’’

बड़े बाबू की बात ने मुझे भीतर तक झकझोर डाला था. अधिकारी पद का मेरा पहला दिन ही मन में इतनी कड़वाहट घोल देगा, मैं ने कभी सोचा भी न था.

शाम को औफिस से निकल कर मैं अपनी कार से मुख्य सड़क पर पहुंचा ही था कि बीच रास्ते में भीड़ देख कर मैं रुक गया. कार से उतर कर भीड़ को चीर कर देखा तो सन्न रह गया. जर्जर और कमजोर आरती बीच सड़क पर बेहोश पड़ी थी. उस के कपड़े अस्तव्यस्त हो गए थे. एक ओर सब्जी का थैला लुढ़का पड़ा था जिस में से कुछ भाजी लुढ़क कर सड़क पर बिखर गई थी.

एक क्षण गौर से आरती के चेहरे पर नजर डाल कर मैं मन ही मन बुदबुदा उठा, ‘क्या हाल हो गया है आरती का? सालभर में ही हड्डियों का ढांचा भर रह गई है. हाथों में नीली नसें उभर आई हैं. चेहरा निस्तेज हो गया है. रंजना के ब्याह के समय विधवा होने के बावजूद कैसी चिडि़या सी चहकती, फुदकती रहती थी.’

सच पूछा जाए तो रंजना की शादी अपने बड़े भाई निखिल से शीघ्र करवाने में आरती की ही अहम भूमिका रही थी, फिर निखिल के वृद्ध मातापिता ने भी सोचा था कि घर में विधवा बेटी की हमउम्र बहू आ जाएगी तो उस के साथ आरती का थोड़ा मन बहल जाया करेगा.

‘‘भाई साहब, जरा मदद करेंगे आप. ये बहनजी हमारे बच्चों को पढ़ाती हैं, बड़ी अच्छी हैं. प्लीज, अपनी कार में इन्हें यहीं पास के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र तक पहुंचा दीजिए, आप की बड़ी मेहरबानी होगी,’’ पीछे से किसी ने मेरे कंधे पर अपना हाथ रखते हुए कहा.

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‘‘हां, हां, क्यों नहीं. वहां मेरा बेटा डाक्टर है, आप घबराओ मत, वह सब संभाल लेगा. पर मैं नया हूं यहां, मुझे रास्ता पता नहीं है, तुम बताते जाना,’’ मैं बोला.

उस आदमी ने सड़क पर बेहोश पड़ी आरती को अपनी गोद में उठाया और कार की पिछली सीट पर लिटा दिया. फिर उस ने सड़क पर बिखरी हुई सब्जी आरती के थैले में भरी और कार की पिछली सीट पर रखी और आरती का सिर अपनी गोद में बड़े प्यार से रख कर बैठ गया.

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